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________________ १७६ तैत्तिरीयोपनिषद् [.वल्ली २ व्यक्तिः । एवं पूर्वसाः पूर्वस्या अभिव्यक्ति होती है । इस प्रकार भूमेरुत्तरस्यामुत्तरस्यां भ्रमौ पूर्व-पूर्व भूमिको अपेक्षा आगे-आगे की भूमिमें प्रसादको विशेषता होनेप्रसादविशेषतः शतगुणेनानन्दो- मोमोगाने | से सौ-सौ गुने आनन्दका उत्कर्ष स्कर्ष उपपद्यते । होना सम्भव ही है। प्रथमं त्वकामहताग्रहणं मनु- [ आगेके सब वाक्योंके साथ रहनेवाला ] 'श्रोत्रियस्य चाकामह तस्य' यह वाक्य पहले [मानुप प्यविषयमोगकामानमिहतस्य आनन्दके साथ ] इसलिये ग्रहण नहीं किया गया कि विषय-भोग श्रोत्रियस्य मनुष्यानन्दाच्छत- और कामनाओंसे व्याकुल न रहने वाले श्रोत्रियके आनन्दका उत्कर्ष गुणेनानन्दोत्कर्षो मनुष्यगन्धर्वेण मानुप आनन्दकी अपेक्षा सौ गुना अर्थात् मनुष्यगन्धर्वके आनन्दके . तुल्यो वक्तव्य इत्येवमर्थम् । तुल्य वतलाना है । श्रुतिमें 'साधु युवा' और 'अध्यायक' ये दो विशेषण साधुयुवाध्यायक इति श्रोत्रिय | [ सार्वभौम राजाका ] श्रोत्रियत्व और निष्पापत्व प्रदर्शित करनेके लिये ग्रहण किये जाते हैं। इन्हें स्वाजिनत्वे गृह्यते । ते ह्यर्वि-आगे भी सबके साथ समान भावसे समझना चाहिये । विषयके उत्कर्ष शिष्टे सर्वत्र । अकामहतत्वं तु और अपकर्पसे सुखका भी उत्कर्ष और अपकर्ष होता है [किन्तु. विषयोत्कर्षापकर्पतः सुखोत्कर्षा- कामनारहित पुरुपके लिये सुखका | उत्कर्ष या अपकर्प हुआ नहीं. करता] इसीलिये अकामहतत्वकी पकपोय विशेष्यते । अताकाम- विशेषता है। और इसीसे 'अकामहत' पद ग्रहण किया गया हतग्रहणम्, तद्विशेषतः शतगुण-1 है । अतः उससे विशिष्ट पुरुषके.
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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