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________________ अनु० ८ ] नेन दृष्टार्थेनादृष्टार्थेन च कर्म साधनेन संपन्ना पूर्णा राजा पृथिवीपतिरित्यर्थः । तस्य च य आनन्दः स एको मानुषो मनुप्याणां प्रकृष्ट एक आनन्दः । सर्वा वित्तस्य वित्तेनोपभोगसाध उपभोगके साधनसे तथा लौकिक और पारलौकिक कर्मके साधनसे सम्पन्न सम्पूर्ण पृथिवी हो- अर्थात् जो राजा यानी पृथिवीपति हो; उसका जो आनन्द है वह एक मानुष आनन्द यानी मनुष्योंका एक प्रकृष्ट आनन्द है । ते ये शतं मानुषा आनन्दाः ऐसे जो सौ मानुप आनन्द हैं वही मनुष्य - गन्धर्वोका एक आनन्द स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः। है । मानुप आनन्दसे मनुष्यगन्धर्वो शाङ्करभाष्यार्थं मानुपानन्दाच्छतगुणेनोत्कृष्टो मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दो भवति । का आनन्द सौ गुना उत्कृष्ट होता है । जो पहले मनुष्य होकर फिर कर्म और उपासनाकी विशेषतासे raat प्राप्त हुए हैं वे मनुष्यमनुष्याः सन्तः कर्मविद्याविशेषा- गन्धर्व कहलाते हैं। वे अन्तर्धानादि १७५ गन्धर्वत्वं प्राप्ता मनुष्यगन्धर्वाः । ते की शक्तिसे सम्पन्न तथा सूक्ष्म शरीर और इन्द्रियोंसे युक्त होते हैं, इसलिये ह्यन्तर्धानादिशक्तिसंपन्नाः उन्हें [ शीतोष्णादि द्वन्द्वोंका ] थोड़ा घाताल्पत्वं तेषां द्वन्द्वप्रतिघात प्रतिघात होता है तथा वे द्वन्द्वोंका सामना करनेवाले सामर्थ्य और साधन से सम्पन्न होते हैं । शक्तिसाधनसंपत्तिश्च । ततो- अतः उस शीतोष्णादि द्वन्द्वसे प्रतिहत न होनेवाले तथा [ उसका प्रतिहन्यमानस्य प्रतीकारवतो | आघात होनेपर ] उसका प्रतीकार करने में समर्थ मनुष्यगन्धर्वको चित्तप्रसाद प्राप्त होता है और उस तत्प्रसादविशेषात्सुखविशेपाभि- | प्रसादविशेपसे उसके सुखविशेपकी मनुष्यगन्धर्वस्य स्याच्चित्तप्रसादः। सूक्ष्मकार्यकरणाः । तस्मात्प्रति
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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