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________________ १७८ तैत्तिरीयोपनिपद् [ वल्ली २ व तद्विपयमकामहतत्वं च नि- उससे होनेवाले धर्म एवं ज्ञान तथा तद्विपयक अकामहतत्व सवसे बढ़े रतिशयं यत्र स एप हिरण्यगर्भो | हुए हैं वह यह हिरण्यगर्भ ही ब्रह्मा ब्रह्मा, तस्यैप आनन्दः श्रोत्रि है । उसका यह आनन्द श्रोत्रिय, निष्पाप और अकामहत पुरुपद्वारा येणावृजिनेनाकामहतेन च सर्वतः । सर्वत्र प्रत्यक्ष उपलब्ध किया जाता है । इससे यह जाना जाता है कि प्रत्यक्षमुपलभ्यते । तस्मादेतानि निष्पापत्व, अकामहतत्व और त्रीणि साधनानीत्यवगम्यते । श्रोत्रियत्व ] ये तीन उसके साधन हैं। इनमें श्रोत्रियत्व और निष्पापत्व तत्र श्रोत्रियत्वावृजिनत्वे | तो नियत (न्यूनाधिक न होनेवाले) धर्म हैं किन्तु अकामहतत्वका नियते अकामहतत्वं तूत्कृष्यत उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता है; इसलिये इति प्रकृष्टसाधनतावगम्यते । जाता है। | यह प्रकृष्ट-साधनरूपसे जाना । तस्याकामहतस्वप्रकर्पतश्चोपल- उस अकामहतत्वके प्रकर्षसे भ्यमानः श्रोत्रियप्रत्यक्षो ब्रह्मण .. उपलब्ध होनेवाला तथा श्रोत्रियको प्रत्यक्ष अनुभव होनेवाला वह ब्रह्माका आनन्दो यस्य परमानन्दस्य आनन्द जिस परमानन्दकी मात्रा मात्रैकदेशः । "एतस्यैवानन्द- अर्थात् केवल एकदेशमात्र है, जैसा स्थान्यानि भूतानि मात्रामुप कि "इस आनन्दके लेशसे ही अन्य प्राणी जीवित रहते है" इस अन्य जीवन्ति" (वृ० उ० ४।३ श्रुतिसे सिद्ध होता है, वह यह ३२) इति श्रुत्यन्तरात् । स एष हिरण्यगर्भका आनन्द, जिसआनन्दो यस्य मात्रा समुद्राम्भसमीदोंके समान की मात्राएँ ( लेशमात्र आनन्द) इव विग्रुपः प्रविभक्ता यत्रैकतां विभक्त हो पुनः उसमें एकत्वको
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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