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________________ अनु०८] शाङ्करभाप्यार्थ १७९ गताः स एप परमानन्दः स्वा-प्राप्त हुई हैं वही अद्वैतरूप होने से खाभाविक परमानन्द है । इसमें भाविकोऽद्वैतत्वादानन्दानन्दि | आनन्द और आनन्दीका अभेद नोश्चाविभागोत्र ॥१-४॥ ब्रमात्मैक्य-दृष्टिका उपसंहार तदेतन्मीमांसाफलमुपसंहियते- अब इस मीमांसाके फलका उपसंहार किया जाता हैस यश्चायं पुरुषे यश्वासावादित्ये स एकः । स य एवंविदस्माल्लोकात्प्रेत्य । एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति । तदप्येष श्लोको भवति ॥ ५॥ वह, जो कि इस पुरुष ( पञ्चकोशात्मक देह ) में है और जो यह आदित्यके अन्तर्गत है, एक है । वह, जो इस प्रकार जाननेवाला है, इस लोक ( दृष्ट और अदृष्ट विपयसमूह ) से निवृत्त होकर इस अन्नमय आत्माको प्राप्त होता है [ अर्थात् विषयसमूहको अन्नमय कोशसे पृथक् नहीं देखता ] । इसी प्रकार वह इस प्राणमय आत्माको प्राप्त होता है, इस मनोमय आत्माको प्राप्त होता है, इस विज्ञानमय आत्माको प्राप्त होता है एवं इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है। उसीके विषयमें यह श्लोक है ॥ ५॥ यो गुहायां निहितः परमे। जो आकाशसे लेकर अन्नमय कोशपर्यन्त कार्यकी रचना करके अमात्मैक्योप- व्योम्न्याकाशादि- उसमें अनुप्रविष्ट हुआ परमाकाशके संहारः कार्य सृष्टान्नमया- भीतर बुद्धिरूप गुहामें स्थित है
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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