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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
न्तं तदेवानुप्रविष्टः स य इति उसीका 'स यः' (बह जो) इन
पदोद्वारा निर्देश किया जाता है। निर्दिश्यते । कोऽसौ ? अयं पुरुपे, वह कौन है ? जो इस पुरुषमें है यश्वासावादित्ये यः परमानन्दः और जो श्रात्रियक लिय प्रत्यक्ष
बतलाया हुआ परमानन्द आदित्यमें श्रोत्रियप्रत्यक्षो निर्दिष्टो यस्यैक- है। जिसके एक देशके आश्रयसे ही
सुखके पात्रीत बला आदि जीव देशं ब्रह्मादीनि भूतानि सुखा-जीवन धारण करते हैं उसी आनन्दहोण्युपजीवन्ति स चश्वासावा- को 'स यश्चातावादित्य' इन पदों
द्वारा निर्दिष्ट किया जाना है। दित्य इति निर्दिश्यते । स एको | भिन्न प्रदेशस्य घटाकाश और भिन्न प्रदेशस्थघटाकामित्वका महाकाशके एकात्यके समान {उन
दोनों उपाधियोंमें स्थित ] वह
आनन्द एक है। नतु तन्निर्देशे स यश्चायं शंका--किन्तु उस आनन्दका
। निर्देश करने में वह जो इस पुरुपने पुरुष इत्यविशेषतोऽध्यात्म न
है इस प्रकार सामान्यरूपसे अध्यात्म युक्तो निर्देशः, पश्चायं दक्षिणे- पुरुषका निर्देश करना उचित नहीं
है, बल्कि 'जो इस दक्षिण नेत्रमें है' ऽक्षनिति तुयुक्ता, प्रसिद्धत्वात् । इस प्रकार कहना ही उचित है,
क्योंकि ऐसा ही प्रसिद्ध है। न, पराधिकारात् । परो समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँपर
| आत्माका अधिकरण है। 'अदृश्येह्यात्मात्राधिकृतोऽदृश्येऽनात्म्ये । ऽनात्म्ये 'भीपास्माद्वातः पवते तथा
'सैपानन्दस्य मीमांसा' आदि वाक्योंभीपास्माद्वातः पवते सैपानन्दस्य के अनुसार यहाँ परमात्माका ही
(प्रकरण है। अतः जिसका कोई मीमांसेति । न यकस्मादप्रकृतो प्रसङ्ग नहीं है उस [ दक्षिणनेत्रस्थ