SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [वल्ली२ तैत्तिरीयोपनिषद् १८६ मेकयोगिनमनेकयोगिवहप्रतिप- अनेकत्ववादी प्रतिपक्षियोंसे युक्त एकत्ववादी बतलाया है-यही बड़े क्षमात्थ । अतो जेष्यासि सवानमंगलकी बात है। अतः अब मैं सबको जीत लूंगा; ले, मैं विचार आरभे च चिन्ताम् । आरम्भ करता हूँ। स एव तु स्यात्तद्भावस्स वि- वह संक्रमणकर्ता परमात्मा ही है, क्योंकि यहाँ जीवको परमात्मपक्षितत्वात् । तद्विज्ञानेन परमा- भावकी प्राप्ति बतलानी अभीष्ट है। 'ब्रह्मवेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता स्मभावो ह्यत्र विवक्षितो ब्रह्म- है' इस वाक्यके अनुसार यहाँ ब्रह्म विज्ञानसे परमात्मभावकी प्राप्ति होती विदाप्नोति परमिति । न ह्यन्य-है-यही प्रतिपादन करना इष्ट है। किसी अन्य पदार्थका अन्य पदार्थस्थान्यभावापत्तिरुपपद्यते । ननु भावको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। तस्यापि तद्भावापत्तिरपन्नव ? यदि कहो कि उसका स्वयं अपने खरूपको प्राप्त होना भी असम्भव न; अविद्याकृततादात्म्यापो ही है, तो ऐसी बात नहीं है। क्योंकि यह कथन केवल अविद्यासे हार्थत्वात् । या हि ब्रह्मविद्यया आरोपित अनात्म पदार्थोका निपेध करनेके लिये ही है। [ तात्पर्य यह खात्मप्राप्तिरुपदिश्यते साविद्या- है कि] ब्रह्मविद्याके द्वारा जो | अपने आत्मखरूपकी प्राप्तिका कृतस्थानादिविशेषात्मन आत्म- | उपदेश किया जाता है वह अविद्या | कृत अन्नमयादि कोशरूप विशेषात्मात्वेनाध्यारोपितस्थानात्मनोऽपो-का अर्थात् आत्मभावसे आरोपित हार्था । किये हुए अनात्माका निषेध करनेके लिये ही है। कथमेवमर्थतावगम्यते ? पूर्व०-उसका इस प्रयोजनके | लिये होना कैसे जाना जाता है ?
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy