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________________ अनु०८] शाकरभाष्यार्थ १८७ विद्यामानोपदेशात् । विद्या- सिद्धान्ती-केवल ज्ञानका ही याच दृष्टं कार्यमविद्यानिवृत्ति | उपदेश किया जानेके कारण । | अज्ञानकी निवृत्ति-यह ज्ञानका स्तचेह विद्यामात्रमात्मप्राप्तो प्रत्यक्ष कार्य है, और यहाँ आत्माकी साधनमुपदिश्यते । प्राप्तिमें वह ज्ञान ही साधन बतलाया गया है। मार्गविज्ञानोपदेशवदिति चे- पर्व०-यदि वह मार्गविज्ञानके तदात्मत्वे विद्यामात्रसाधनोप उपदेशके समान हो तो? [अब इसीकी व्याख्या करते हैं- केवल देशोऽहेतुः । कस्मात् ? देशान्तर | ज्ञानका ही साधनरूपसे उपदेश किया जाना उसकी परमात्मरूपतामें प्राप्ती मार्गविज्ञानोपदेशदर्श- कारण नहीं हो सकता । ऐसा क्यों है ? क्योंकि देशान्तरकी प्राप्तिके नात् । न हि ग्राम एव गन्तेति लिये भी मार्गविज्ञानका उपदेश होता देखा गया है । ऐसी अवस्थामें ग्राम चेत् ? ही गमन करनेवाला नहीं हुआ करता-ऐसा माने तो? न, वैधात् । तत्र हि ग्राम- सिद्धान्ती-ऐसा कहना ठीक नहीं | क्योंकि वे दोनों समान धर्मवाले नहीं विपयं विज्ञानं नोपदिश्यते । हैं। * [ तुमने जो दृष्टान्त दिया है] तत्प्राप्तिमार्गविपयमेवोपदिश्यते । उसमें ग्रामविषयक विज्ञानका उपदेश नहीं दिया जाता, केवल उसकी प्राप्तिके मार्गसे सम्बन्धित विज्ञान* ग्रामको जानेवाले और ब्रह्मको प्राप्त होनेवालेमें बड़ा अन्तर है। इसके सिवा प्रामको जानेवालेको जो मार्गके विज्ञानका उपदेश किया जाता है उसमें यह नहीं कहा जाता कि 'तू अमुक ग्राम है। परन्तु ब्रह्मज्ञानका उपदेश तो. 'तू ब्रहा है। इस अभेदसूचक वाक्यसे ही किया जाता है।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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