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________________ अनु०१] शाङ्करभाष्यार्थ स्वयमेव च प्रयोजनमाह | इस प्रकरणके सम्बन्ध और ब्रह्मविदामोति परमित्यादावेव प्रयोजनका ज्ञान करानेके लिये श्रुतिने स्वयं ही 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' संवन्धप्रयोजनज्ञापनार्थम् । नि इत्यादि वाक्यसे आरम्भमें ही इसका तियोहि सम्बन्धप्रयोजनयो- प्रयोजन बतला दिया है, क्योंकि विद्याश्रवणग्रहणधारणाभ्यासार्थ सम्बन्ध और प्रयोजनोंका ज्ञान हो प्रवर्तते । श्रवणादिपूर्वकं हि जानेपर ही पुरुप विद्याके श्रवण, ग्रहण, धारण और अभ्यासके लिये विद्याफलम् "श्रोतव्यो मन्तव्यो प्रवृत्त हुआ करता है । "श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः। (वृ. उ.! मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि दूसरी श्रुतियोंसे यह भी निश्चय २।४ । ५) इत्यादिश्रुत्यन्त- होता ही है कि विद्याका फल रेभ्यः । श्रवणादिपूर्वक होता है। ब्रह्मविदाप्नोति परम् । तदेषाभ्युक्ता । सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति । तस्माद्वा एतस्सादात्मन आकाशःसंभूतः आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम् । अन्नोत्पुरुषः । स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। तस्येदमेव शिरः । अयं दक्षिणः पक्षः। . अयमुत्तरः पक्षः । अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येप श्लोको भवति ॥१॥ ___ ब्रह्मवेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता है । उसके विपयमें यह [श्रुति ] कही गयी है-'ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है ।' जो पुरुप उसे बुद्धिरूप परम आकाशमें निहित जानता है, वह सर्वज्ञ ब्रह्मरूपसे एक साथ ही सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्त कर लेता है । उस इस आत्मासे ही आकाश उत्पन्न हुआ । आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल,
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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