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'तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
जलसे पृथिवी, पृथिवीसे ओषधियाँ, ओपधियोंसे अन्न और अन्नसे पुरुष उत्पन्न हुआ। वह यह पुरुष अन्न एवं रसमय ही है । उसका यह [ शिर ] ही शिर है, यह [ दक्षिण बाहु ] ही दक्षिण पक्ष है, यह [ वाम वाहु ] वामपक्ष है, यह [शरीरका मध्यभाग] आत्मा है और यह [नीचेका भाग] पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है ॥ १॥
ब्रह्मविहलोत वक्ष्यमाणलक्षणं 'ब्रह्मवित्'-ब्रह्म, जिसका लक्षण ब्रह्मविदो वृहत्तमत्वाब्रह्म त- आगे कहा जायगा और जो
सबसे बड़ा होनेके कारण 'ब्रह्म' नाप्राप्तिनिरूपणम् द्वेत्ति विजानातीति कहलाता है, उसे जो जानता है ब्रहाविदामोति परं निरतिशयं ! उसका नाम 'ब्रह्मवित्' है; वह
ब्रह्मवित् उस परम-निरतिशय ब्रह्मतदेव ब्रह्म परम् । न बन्यस्य को ही 'आप्नोति'-प्राप्त कर लेता विज्ञानादन्यस्य प्राप्तिः। स्पष्टं है क्योंकि अन्यके विज्ञानसे किसी
अन्यकी प्राप्ति नहीं हुआ करती। च श्रुत्यन्तरं ब्रह्मप्राप्तिमेव ब्रह्म
"वह, जो कि निश्चय ही उस परब्रह्मविदो दर्शयति " स यो ह वै को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता तत्परसं ब्रह्म वेद ब्रोव भवति" है" यह एक दूसरी श्रुति ब्रह्मवेत्ता
को स्पष्टतया ब्रह्मकी ही प्राप्ति होना (मु० उ०३।२।९) इत्यादि । प्रदर्शित करती है।
ननु सर्वगतं सर्वस्यात्मभूतं शंका-ब्रह्म सर्वगत और सबका ब्रह्म वक्ष्यति । अतो नाप्यम । आत्मा है-ऐसा आगे कहेंगे; इसलिये
वह प्राप्तव्य नहीं हो सकता । प्राप्ति प्राप्तिश्चान्यस्यान्येन परिच्छिन्नस्य तो अन्य परिच्छिन्न पदार्थकी किसी च परिच्छिन्नेन दृष्टा । अपरि
अन्य परिच्छिन्न पदार्थद्वारा ही होती
देखी गयी है। किन्तु ब्रह्म तो च्छिन्नं सर्वात्मकं च ब्रोत्यतः अपरिच्छिन्न और सर्वात्मक है; परिच्छिन्नवदनात्मवच्च तस्याप्ति
| इसलिये परिच्छिन्न और अनात्म
| पदार्थके समान उसकी प्राप्ति होनी रनुपपन्ना।
| असम्भव है।