________________
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली१
तीति प्रत्युक्तम् । कर्मशेषस्य च हम इसका पहले ही खण्डन कर
चुके हैं; तथा नित्यकर्मोके अनुष्ठानसे नित्यानुष्ठानेनाविरोधात्क्षयानुप
थाउप सञ्चित कर्मोका विरोध न होनेके कारण पत्तिरिति च ।
उनका क्षय होना सम्भव नहीं है । यदुक्तं समस्तवेदार्थज्ञानवतः। और यह जो कहा कि समस्त
वेदके अर्थको जाननेवालेको ही कर्माधिकारादित्यादि, तच्च नः | कर्मका अधिकार होनेके कारण
[केवल कर्मसे ही निःश्रेयसकी प्राप्ति श्रुतज्ञानव्यतिरेकादुपासनस्य ।। हो सकती है ] सो भी ठीक नहीं,
क्योंकि उपासना श्रुतज्ञान (गुरुश्रुतज्ञानमात्रेण हि कर्मण्यधि-1
कुलमें किये हुए वाक्यविचार ) से क्रियते नोपासनामपेक्षते । उपा
भिन्न ही है । मनुष्य श्रुतज्ञानमात्रसे
ही कर्मका अधिकारी हो जाता है, सनं च श्रुतज्ञानादर्थान्तरं त्रि- | इसके लिये वह उपासनाकी अपेक्षा
नहीं रखता । उपासना तो श्रुतज्ञानधीयते । मोक्षफलमथान्तरप्रसिद्ध से भिन्न वस्तु ही बतलायी गयी है।
वह उपासना मोक्षरूप फलवाली च स्यात् । 'श्रोतव्यः' इत्युक्त्वा | तव्य इत्युक्त्वा और अर्थान्तररूपसे प्रसिद्ध है,
क्योंकि 'श्रोतव्यः' ऐसा कहकर तद्वयतिरेकेण 'मन्तव्यो निदि
[मनन और निदिध्यासनके लिये] ध्यासितव्यः' इति यत्नान्तरवि
'मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इस
प्रकार पृथक् यत्नान्तरका विधान धानात् । मनननिदिध्यासनयोश्च किया है । लोकमें भी श्रवणज्ञानसे
मनन और निदिध्यासनका अर्थान्तप्रसिद्धं श्रवणज्ञानादर्थान्तरत्वम् । रत्व प्रसिद्ध ही है ।
एवं तर्हि विद्यासव्यपेक्षेभ्यः पूर्व०-इस प्रकार तब तो विद्याशानकर्मसमुच्छ- कर्मभ्य स्यान्मोक्ष की अपेक्षासे युक्त कर्मोद्वारा ही यस्य मोक्षसाध- विद्यासहितानां च मोक्ष हो सकता है । जो कर्म ज्ञान
कर्मणां भवेत्कार्या- | के सहित होते हैं उनमें कार्यान्तरके
नत्वनिरास: