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शाङ्करभाष्यार्थ
कृत्स्नश्च वेदः कर्मार्थ इति हि । ऐसा भी मानते हैं कि सम्पूर्ण वेद मन्यन्ते केचित् । कर्मभ्यश्चेत्परं । कर्मके ही लिये हैं, और यदि कर्मों से श्रेयो नावाप्यते वेदोऽनर्थकः ही परम श्रेयकी प्राप्ति न हुई तो स्यात् । वेद भी व्यर्थ ही हो जायगा ।
० ११ ]
अनु०
नः नित्यत्वान्मोक्षस्य, नित्यो हि मोक्ष इष्यते । कर्मकार्यस्यानित्यत्वं प्रसिद्धं लोके । कर्मभ्यच्छ्रेयो नित्यं स्यात्तच्चानिष्टम् । " तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते" ( छा० उ० ८ ।
। १ । ६ ) इतिन्यायानुगृहीत -
श्रुतिविरोधात् । काम्यप्रतिषिद्धयोरनारम्भा
दारब्धस्य च कर्मण उपभोगेन
क्षयान्नित्यानुष्ठानाच्च तत्प्रत्यवायानुत्पत्तेर्ज्ञाननिरपेक्ष एव मोक्ष
इति चेत् ?
तच्च नः शेपकर्मसंभवात्तन्नि
सिद्धान्ती - ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि मोक्षका नित्यत्य हैमोक्ष नित्य ही माना गया है । और जो वस्तु कर्मका कार्य है उसकी अनित्यता लोक में प्रसिद्ध है । यदि नित्य श्रेय कर्मोंसे होता है ऐसा
मानें तो इष्ट नहीं है; क्योंकि इसका “जिस प्रकार यह कर्मोपार्जित लोक क्षीण होता है [ उसी प्रकार पुण्यार्जित परलोक भी क्षीण हो जाता है ]" इस न्याययुक्ता श्रुतिसे विरोध है ।
पूर्व० - काम्य और प्रतिपिद्ध कर्मो का आरम्भ न करनेसे, प्रारब्ध कर्मो का भोगसे ही क्षय हो जानेसे तथा नित्य कर्मों के अनुष्ठान के कारण प्रत्यवायकी उत्पत्ति न होनेसे मोक्ष ज्ञानकी अपेक्षासे रहित ही है-यदि ऐसा माने तो ?
सिद्धान्ती-ऐसी बात भी नहीं
- है; शेप ( सञ्चित ) कर्मो के रह जाने से उनके कारण अन्य शरीरकी
मित्तशरीरान्तरोत्पत्तिः प्राप्नो उत्पत्ति सिद्ध होती है - इस प्रकार
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