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अनु० ६
शाङ्करभाष्यार्थं
विद्वान्ब्रह्मविदपि कश्चिदितः प्रे
कोई विद्वान् अर्थात् ब्रह्मवेत्ता भी इस शरीरको छोड़कर इस लोकको प्राप्त कर लेता है ? यहाँ मूलमें 'समश्नुते उ' ऐसा पद था । उसमें 'अयू' आदेश करके [ 'लोपः अयादेशे यलोपे च कृतेऽ- ' शाकल्यस्य' इस सूत्र के अनुसार ]
त्यामुं लोकं समश्नुते प्राप्नोति समन्नुते उ इत्येवं स्थिते,
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'यू' का लोप करनेपर 'समश्नुत उ' ऐसा प्रयोग सिद्ध होता है । फिर
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विद्वान्समन्नुतेऽमुं 'त' के अकारको प्लुत करने पर 'समश्नुता ३ उ' ऐसा पाठ हुआ है । विद्वान् इस लोकको प्राप्त होता है ? अथवा अविद्वान् के समान विद्वान् भी उसे प्राप्त नहीं होता ? यह एक अन्य प्रश्न है ।
कारस्य प्लुतिः समश्नुता ३ उ
इति 1
लोकम् । किं वा यथाविद्वानेव
विद्वानपि न समश्नुत इत्यपरः
प्रश्नः ।
द्वावेव वा प्रश्न विद्वदविद्व
द्विपयौ । बहुवचनं तु सामथ्ये
प्राप्त प्रशान्तरापेक्षया घटते । ‘असह्रोति वेद चेत् । अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद' इति श्रवणादस्ति नास्तीति संशयस्ततोऽर्थप्राप्तः कि
मस्ति नास्तीति प्रथमोऽनुप्रश्नः । ब्रह्मणोऽपक्षपातित्वादविद्वान्
गच्छति न गच्छतीति द्वितीयः । ब्रह्मणः समत्वेऽप्यविदुष इव
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।
अथवा विद्वान् और अविद्वान्से सम्बन्धित ये केवल दो ही प्रश्न हैं । इनकी सामर्थ्य से प्राप्त एक और प्रश्नकी अपेक्षासे ही बहुवचन हो गया है । 'ब्रह्म असत् है-यदि
।
ऐसा जानता है' तथा 'ब्रह्म है -- यदि ऐसा जानता है' ऐसी श्रुति होने से 'ब्रह्म है या नहीं' ऐसा
सन्देह होता है । अतः 'ब्रह्म है या नही' यह अर्थतः प्राप्त पहला अनुप्रश्न है । और ब्रह्म पक्षपाती है नहीं, इसलिये 'अविद्वान् उसे प्राप्त होता है या नहीं ?' यह दूसरा अनुप्रश्न है । तथा ब्रह्म समान है, इसलिये