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________________ १४४ तैत्तिरीयोपनिषद् विदुषोऽप्यगमनमाशङ्कयते किं विद्वान्समश्नुते न समश्नुत इति तृतीयोऽनुप्रश्नः । [ चल्ली २ अविद्वान्के समान विद्वान्की भी ब्रह्मप्राप्तिके विषय में 'विद्वान् उसे प्राप्त होता है या नहीं ?' ऐसी शंका की जाती है । यह तीसरा अनुप्रश्न है । एतेषां प्रतिवचनार्थमुत्तरग्रन्थ च्यते सभ्वोक्त्यैव सत्यत्वमुच्यते । उक्तं हि “सदेव सत्यम्” इति । आगेका ग्रन्थ इन प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये हो आरम्भ किया जाता ब्रह्मणः सत्व- आरभ्यते । तत्रा | है । उसमें सबसे पहले ब्रह्मके रूपत्वस्थापनम् स्तित्वमेव तावदु- | अस्तित्वका ही वर्णन किया जाता च्यते । यञ्चोक्तं 'सत्यं ज्ञान है | 'ब्रह्म सत्य ज्ञान और अनन्त है' मनन्तं ब्रह्म' इति, तच्च कथं । ऐसा जो पहले कह चुके हैं सो सत्यत्वमित्येतद्वक्तव्यमितीदसु वह ब्रह्मकी सत्यता किस प्रकार है - यह बतलाना चाहिये । इसपर कहते हैं - उसकी सत्ता बतलाने से ही उसके सत्यत्वका भी प्रतिपादन हो जाता है । " सत् ही तस्मात्सत्त्वोक्त्यैव सत्यत्वमुच्यसत्य है" ऐसा अन्यत्र कहा भी ते । कथमेवमर्थतावगम्यतेऽस्य है । अतः उसकी सत्ता बतलाने से ग्रन्थस्य शब्दानुगमात् । अने ही उसका सत्यत्व भी बतला दिया जाता है । किन्तु इस ग्रन्थनैव हार्थेनान्वितान्युत्तराणि | का भी यही तात्पर्य है - यह कैसे वाक्यानि " तत्सत्यमित्याच जाना गया ? इसपर कहते हैंशब्दोंके अनुगमन ( अभिप्राय ) से; क्योंकि " वह सत्य है - ऐसा कहते हैं" "यदि यह आनन्दमय आकाश न होता" आदि आगे वाक्य भी इसी असे युक्त हैं। क्षते” ( तै० उ० २ । ६ । १) " यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ” ( तै० उ० २।७।१) इत्यादीनि ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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