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________________ अनु०१] शाङ्करभाज्यार्थ विशेषेण प्रत्यगात्मतयानन्य- विशेषतः 'अपना अन्तरात्मा होनेसे .रूपेण विज्ञेयत्वाय, ब्रह्मविद्याफलं अनन्यरूपसे जाननेयोग्य है' ऐसा प्रतिपादन करनेके लिये और यह च ब्रह्मविदो यत्परब्रह्मप्राप्ति- दिखलानेके लिये कि-ब्रह्मवेत्ताको जो लक्षणमुक्तं स सर्वात्मभावः सर्व परमात्माकी प्राप्तिरूप ब्रह्मविद्याका फल बतलाया गया है वह सर्वात्मभाव संसारधर्मातीतब्रह्मस्वरूपत्वमेव सम्पूर्ण सांसारिक धर्मोसे अतीत नान्यदित्येतत्प्रदर्शनायैपर्मुदाहि ब्रह्मखरूपता ही है-और कुछ नहीं है-'तदेपाभ्युक्ता' यह ऋचा कहीं यते-तदेपाभ्युक्तति । जाती है। तत्तस्मिन्नेव ब्राह्मणवाक्यो- तत्-उस ब्राह्मणवाक्यद्वारा क्तेऽर्थ एपर्गम्युक्तानाता। सत्यं बतलाये हुए अर्थमें हो [ सल्यं ज्ञानज्ञानमनन्तं ब्रहोति ब्रह्मणो लक्ष .. मनन्तं ब्रह्म ] यह ऋचा कही गयी है । 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' यह णार्थं वाक्यम् । सत्यादीनि हि वाक्य ब्रह्मका लक्षण करनेके लिये त्रीणि विशेषणार्थानि पदानि है । 'सत्य' आदि तीन पद विशेष्य विशेष्यस्य ब्रह्मणः । विशेष्यं ब्रह्मके विशेषण बतलानेके लिये हैं। वेद्यरूपसे विवक्षित (बतलाये जानेब्रह्म विवक्षितत्वाद्वेद्यतया ।। को इष्ट) होनेके कारण ब्रह्म वेद्यत्वेन यतो ब्रह्म प्राधान्येन विशेष्य है । क्योंकि ब्रह्म प्रधानतया विवक्षितं तस्माद्विशेष्यं विज्ञेयम्। | वेद्यरूपसे (ज्ञानके विपयरूपसे) अतः असाद् विशेषणविशेष्य- विवक्षित है; इसलिये उसे विशेष्य समझना चाहिये । अतः इस त्वादेव सत्यादीनि न एक विशेपण-विशेष्यभावके कारण एक एक विभक्त्यन्तानि पदानि समाना- ही विभक्तिवाले 'सत्य' आदि तीनों धिकरणानि । सत्यादि । पद समानाधिकरण हैं । सत्य आदि
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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