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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
भिस्तिभिर्विशेपणैर्विशेष्यमाणं ब्रह्म | तीन विशेषणोंसे विशेपित होनेवाला
ब्रह्म अन्य विशेष्योंसे पृथग्रूपसे निश्चय विशेष्यान्तरेभ्यो निर्धार्यते । एवं | किया जाता है। जिसका अन्य पदार्थो
से पृथक्रूपसे निश्चय किया गया है हि तज्ज्ञानं भवति यदन्येभ्यो उसका इसी प्रकार ज्ञान हुआ करता
है; जैसे लोकमें 'नील' विशाल और निर्धारितम् । यथा लोके नीलं सुगन्धित कमल [-ऐसा कहकर ऐसे
कमलका अन्य कमलोंसे पृथकरूपसे महत्सुगन्ध्युत्पलसिति ।
निश्चय किया जाता है । ननु विशेष्यं विशेषणान्तरं शंका-अन्य विशेषणोंका व्यावर्तन निर्विशेपस्य व्यभिचरद्विशेष्यते!
करनेपर ही कोई विशेष्य विशेपित विशेषणवत्वे
हुआ करता है; जैसे-नीला अथवा __ भाक्षेपः यथा नाल रक्त लाल कमल | जिस समय अनेक द्रव्य चोत्पलमिति । यदा बनेकानि एकहीजातिके और अनेक विशेषणोंद्रव्याण्येकजातीयान्यनेकविशेषण- की योग्यतावाले होते हैं तभी
| विशेषणोंकी सार्थकता होती है । एक योगीनि च तदाविशेषणस्यार्थ- ही वस्तुमें, किसी अन्य विशेषणका
सम्बन्ध न हो सकनेके कारण, वत्वम् । न ोकस्मिन्नेव वस्तुनि
विशेपणकी सार्थकता नहीं होती। विशेषणान्तरायोगाद् । यथासा- जिस प्रकार यह सूर्य एक है उसी प्रकार चेक आदित्य इति, तथैकमेव च ब्रह्म भी एक ही है, उसके सिवा अन्य
ब्रह्म हैं ही नहीं, जिनसे कि नोल ब्रह्म न ब्रह्मान्तराणि येभ्यो
कमलके समान उसकी विशेषता विशेष्येत नीलोत्पलवत्। बतलायी जाय । न; लक्षणार्थत्वाद्विशेषणा- समाधान-ऐसा कहना ठीक
नहीं है, क्योंकि ये विशेपण लक्षणके ब्रह्मविशेषणानां नाम् । नायं दोषः, लिये हैं। [अब इस सूत्ररूप वाक्यतलक्षणार्थत्वम् करसात ? यस्माल- की ही व्याख्या करते हैं-1 यह
| दोप नहीं हो सकता, क्यों नहीं हो क्षणार्थप्रधानानि विशेषणानि न | सकता क्योंकि ये विशेषण लक्षणार्थ