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अनु०१]
शाङ्करमाप्यार्थ
विशेषणप्रधानान्येव का पुनर्ल- प्रधान हैं, केवल विशेषणप्रधान ही
| नहीं हैं । किन्तु लक्षण-लक्ष्य तथा क्षणलक्ष्ययोर्विशेषणविशेष्ययोर्वा विशेषण-विशेष्यमें विशेषता (अन्तर) । विशेष इति ? उच्यते ; समान
क्या है ? सो बतलाते हैं-विशेषण
| तो अपने विशेष्यका उसके सजातीय जातीयेभ्य एव निवर्तकानि पदार्थोंसे ही व्यावर्तन करनेवाले विशेषणानि विशेष्यस्य । लक्षणं
होते हैं, किन्तु लक्षण उसे सभीसे
व्यावृत्त कर देता है। जिस प्रकार तु सर्वत एव यथावकाशप्रदात्रा- अवकाश देनेवाला 'आकाश' होता
है-इस वाक्यमें है। यह हम पहले काशमिति । लक्षणार्थं च वाक्य
ही कह चुके हैं कि यह वाक्य मित्यवोचाम।
[आत्माका] लक्षण करनेके लिये है। सत्यादिशब्दा न परस्परं सत्यादि शब्द परार्थ (दूसरेके
लिये) होनेके कारण परस्पर सत्यमित्यस्य संवध्यन्ते परार्थ
सम्बन्धित नहीं हैं । वे तो विशेष्यव्याख्यानम् त्वात् । विशेष्यार्था
के ही लिये हैं । अतः उनमेंसे हि ते । अत एकैको विशेषण
| प्रत्येक विशेपणशब्द परस्पर एकशब्दः परस्परं निरपेक्षो ब्रह्म- दुसरेकी अपेक्षा न रखकर ही 'सत्यं शब्देन संवध्यते सत्यं ब्रह्म ब्रह्म, ज्ञानं ब्रह्म, अनन्तं ब्रह्म' इस ज्ञानं ब्रह्मानन्तं ब्रोति । प्रकार 'ब्रह्म' शब्दसे सम्बन्धित है। सत्यमिति यद्रूपेण यनिश्चितं सत्यम्-जो पदार्थ जिस रूपसे
निश्चय किया गया है उससे. व्यभितद्रूपं न व्यभिचरति तत्सत्यम् । चरित न होनेके कारण वह सत्य
कहलाता है। जो पदार्थ जिस रूपसे यद्रूपेण निश्चितं यत्तद्रूपं व्यभि- | निश्चित किया गया है उस रूपसे
* इस वाक्यमें 'अवकाश देनेवाला' यह पद उसके सजातीय अन्य महाभूतोंसे तथा विजातीय आत्मा आदिसे भी व्यावृत्त कर देता है।