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________________ ૪૮ तैत्तिरीयोपनिषद् LE [वल्ली २] ताद्यपेक्षत्वम् । किं तहि खात्म- नहीं होती। तो ब्रह्मकी कामनाएँ कैती होती हैं ? वे खात्मासे नोऽनन्याः । अभिन्न होती हैं। तदेतदाह सोऽकामयत स उसीके विषयमें श्रुति कहती है । उसने कामना की-उस आत्माने, ब्रह्मणो आत्मा यसादाकाशः जिससे कि आकाश उत्पन्न हुआ पहुभवनसत्यः संभूतोऽकामयत है, कामना की । किस प्रकार कामितवान् । कथम् ? बहु स्यां कामना की ? मैं बहुत अधिक बहु प्रभूतं स्यां भवेयम् । कथमे रो रूपमें हो जाऊँ अन्य पदार्थमें प्रवेश किये बिना ही एक वस्तुकी बहुलता कस्वार्थान्तराननुप्रवेशे बहुत्वं कैसे हो सकती है ? इसपर कहते हैं-'प्रजायेय' अर्थात् उत्पन्न होऊँ। स्थादित्युच्यते । प्रजायेयोत्पद्येय।। यह ब्रह्मका बहुत होना पुत्रकी न हि पुत्रोत्पत्त्येवार्थान्तरविपयं उत्पत्तिके समान अन्य वस्तुविषयक बहुभवनम्, कथं तर्हि ? आत्म- नहीं है । तो फिर कैसा है ? अपने |में अव्यक्तरूपसे स्थित नाम-रूपोंकी स्थानाभिव्यक्तनामरूपाभिव्य- अभिव्यक्तिके द्वारा ही [ यह अनेक क्त्या । यदात्मस्थे अनभि- | रूप होना है ] । जिस समय व्यक्त नामरूपे व्याक्रियेते तदा आत्मामें स्थित अव्यक्त नाम और रूपोंको व्यक्त किया जाता है उस नामरूपे आत्मस्वरूपापरित्यागे- समय वे अपने खरूपका त्याग किये नैव ब्रह्मणाप्रविभक्तदेशकाले बिना ही समस्त अवस्थाओंमें ब्रह्मसे .. अभिन्न देश और कालमें ही व्यक्त सविस्थासु व्याक्रियेते तदा किये जाते हैं। यह नाम-रूपका तन्नामरूपव्याकरणं ब्रह्मणो बहु व्यक्त करना ही ब्रह्मका बहुत होना है । इसके सिवा और किसी प्रकार भवनम् । नान्यथा निरवयवस्य । | निरवयव ब्रह्मका बहुत अथवा अल्प ब्रह्मणो वहुत्वापत्तिरुपपद्यतेऽल्प- होना सम्भव नहीं है, जिस प्रकार ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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