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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ .
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त्वं वा । यथाकाशस्याल्पत्वंबहु-| कि आकाशका अल्पत्व और बहुत्व
भी अन्य वस्तुके ही अधीन है त्वंच वस्त्वन्तरकृतमेव । अतस्त- उसी प्रकार ब्रह्मका भी हैं। अतः
उन (नाम-रूपों) के द्वारा ही ब्रह्म द्वारेणैवात्मा बहु भवति । ।
बहुत हो जाता है। न ह्यात्मनोऽन्यदनात्मभूतं आत्मासे भिन्न अनात्मभूत, तथा तत्प्रविभक्तदेशकालं सूक्ष्म व्यव- 3
कोई भी सूक्ष्म,व्यवहित (ओटवाली), हितं विप्रकृष्टं भूतं भवद्भविष्यद्वा |
दूरस्थ, अथवाभूत या भविष्यकालीन वस्तु विद्यते । अतो नामरूपे वस्तु नहीं है । अतः सम्पूर्ण सर्वावस्थे ब्रह्मणैवात्मवती, न |
| अवस्थाओंसे सम्बन्धित नाम और
| रूप ब्रह्मसे ही आत्मवान् हैं, किन्तु ब्रह्म तदात्मकम् । ते तत्प्रत्या- ब्रह्म तद्रूप नहीं है । ब्रह्मका निषेध बयान पनि नाम करनेपर वे रह ही नहीं सकते,
इसीसे वे तद्रूप कहे जाते हैं । उन उच्यते । ताभ्यां चोपाधिभ्यां
उपाधियोंसे ही ब्रह्म ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञातृञयज्ञानशब्दार्थादिसर्वसं- ज्ञान--इन शब्दोंका तथा इनके अर्थ
आदि सब प्रकारके व्यवहारका पात्र व्यवहारभाग्ब्रह्म ।
बनता है। स आत्मैवंकामः संस्तपो-| उस आत्माने ऐसी कामनावाला
होकर तप किया। 'तप' शब्दसे ऽतप्यत । तप इति ज्ञानमुच्यते ।
| यहाँ ज्ञान कहा जाता है, जैसा कि "यस्य ज्ञानमयं तपः" (मु० उ० "जिसका ज्ञानरूप तप है" इस अन्य. १।१।८) इति श्रुत्यन्तरात्। श्रुतिसे सिद्ध होता है। आप्तकाम
होनेके कारण आत्माके लिये अन्य आप्तकामत्वाचेतरस्यासंभव एव |
ए-तप तो असम्भव ही है । 'उसने तपसः। तत्तपोऽतप्यत तप्तवान् । । तप किया' इसका तात्पर्य यह है