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________________ अनु०१०] शाकरभाष्यार्थ २३१ भेदजातस्य सर्वस्थात्मभूतत्त्वात् । कामाः प्रतिनियतानेकसाधन- एवं प्रत्येकके लिये नियत अनेक साधनोंसे सिद्ध होनेवाले जो सम्पूर्ण साध्या आकाशादिकार्यभेद- भोग हैं वे भी दिखला दिये गये हैं। परन्तु यदि आत्माका एकत्व स्वीकार विपया एते दर्शिताः । एकत्वे किया जाय तब तो काम और कामित्वका होना ही असम्भव होगा, पुनः कामकामित्वानुपपत्तिः । क्योंकि सम्पूर्ण भेदजात आत्मस्वरूप ही है । ऐसी अवस्थामें इस प्रकार | जाननेवाला उपासक ब्रह्मरूपसे तत्र कथं युगपद्ब्रह्मस्वरूपेण किस प्रकार एक ही साथ सम्पूर्ण | भोगोंको प्राप्त कर लेता है ? सो सन्किामानेवं वित्समश्नुत इत्यु वतलाया जाता है-उसका सर्वात्म भाव सम्भव होनेके कारण ऐसा हो च्यते-सर्वात्मत्वोपपत्तेः। सकता है।* कथंसर्वात्मत्वोपपत्तिरित्याह- उसका सर्वात्मत्व किस प्रकार सम्भव है ? सो बतलाते हैं-पुरुप पुरुषादित्यस्थात्मकत्वविज्ञानेना- और आदित्यमें स्थित आत्माके पोह्योत्कर्षापकर्पावन्नमयाद्यात्मनो एकत्वज्ञानसे उनके उत्कर्ष और अपकर्षका निराकरण कर आत्माके विद्याकल्पितान्क्रमेण संक्रम्या अज्ञानसे कल्पना किये हुए अन्नमयसे लेकर आनन्दमयपर्यन्त सम्पूर्ण नन्दमयान्तान्सत्यं ज्ञानमनन्तं कोशोंके प्रति संक्रमण कर जो सबका फलखरूप है उस अदृश्यादि धर्मब्रह्मादृश्यादिधर्मकं स्वाभाविक माविक | वाले स्वाभाविक आनन्दवरूप * तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मकी अमेदोपासना करते-करते उससे तादात्म्य अनुभव करने लगता है वह सबका अन्तरात्मा ही हो जाता है; इसलिये सबके अन्तरात्मस्वरूपसे वह सम्पूर्ण भोगोंको भोगता है।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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