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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
शास्त्रंतुल्यप्रत्ययसन्ततिरसंकीर्णा शास्त्रानुसार समान प्रत्ययके प्रवाहका
नाम 'उपासना' है। वह प्रवाह विजाचातत्प्रत्ययः शास्त्रोक्तालम्बन-तीय प्रत्ययोंसे रहित और शास्त्रोक्त विषया च । प्रसिद्धश्योपासन
आलम्वनको आश्रय करनेवाला होना
चाहिये । लोकमें 'गुरुकी उपासना शब्दार्थों लोके गुरुमुपास्ते करता है"राजाकी उपासना करता है'
इत्यादि वाक्योंमें 'उपासना' शब्दका राजानमुपास्त इति । यो हि |
| अर्थ प्रसिद्ध ही है । जो पुरुप गुरु
आदिकी निरन्तर परिचर्या करता गुर्वादीन्सन्ततमुपचरति स उपास्त
है वही 'उपासना करता हैं ऐसा इत्युच्यते । स च फलमानोत्यु- कहा जाता है। वही उस उपासना
का फल भी प्राप्त करता है । अतः पासनस्य । अतोनापि च य इस महासंहिताके सम्बन्धमें भी जो .
पुरुष इस प्रकार उपासना करता है एवं वेद संधीयते प्रजादिभिः वह [ मन्त्रमें बतलाये हुए] प्रजासे खर्गान्तः । प्रजादिफलान्यानो
लेकर खर्गपर्यन्त समस्त पदार्थोसे
! सम्पन्न होता है, अर्थात् प्रजादिरूप तीत्यर्थः ॥१-४॥
फल प्राप्त करता है ॥ १-४ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां तृतीयोऽनुवाकः ॥३॥