SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तैत्तिरीयोपनिपद् . [ वल्ली १ कर्तव्यमिति तपोनित्यस्तपसि ऐसा तपोनित्य-नित्य तपोनिष्ठ नित्यस्तपःपरस्तपोनित्य इति वा अथवा तपोनित्य नामवाला पौरुशिष्टि नाम पौरुशिष्टिः पुरुशिष्टस्या -पुरुशिष्टका पुत्र पौरुशिष्टि आचार्य मानता है । खाध्याय और प्रवचन पत्यं पौरुशिष्टिराचार्यो मन्यते । ' ही अनुष्ठान किये जाने योग्य हैंस्वाध्यायप्रवचने एवानुछेये इति ऐसा नाक नामबाला मुद्गलका नाको नामतो मुगलस्यापत्यं पुत्र मौद्गल्य आचार्य मानता है । मौद्गल्य आचार्यों मन्यते । तद्धि वही तप है, वही तप है । तपस्तद्धि तपः । हि यस्मात्स्वा इसका तात्पर्य यह है क्योंकि ध्यायप्रवचने एव तपस्तसात्ते स्वाध्याय और प्रवचन ही तप हैं, इसलिये वे ही अनुष्ठान किये जाने एवानुष्ठये इति । उक्तानामपि योग्य हैं। पहले कहे हुए भी सत्य, सत्यतपःखाध्यायप्रवचनानां पु- तप, स्वाध्याय और प्रवचनोंका , नम्रहणमादरार्थम् ॥१॥ पुनर्ग्रहण उनके आदरके लिये है॥१॥ इति शीक्षावल्ल्यां नवमोऽनुवाकः ॥९॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy