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________________ अनु०११] शाङ्करभाज्यार्थ ७५ फलार्थिनां च फलसाधनं न इच्छावालोंको [उनके इष्ट] फलकी प्राप्ति करानेका साधन है, वह कारकास्तत्व व्याप्रियत । उप- कारकोंका अस्तित्व सिद्ध करने में 'चितदुरितप्रतिवन्धस्य हि विद्यो प्रवृत्त नहीं है। जिस पुरुषका | सञ्चित पापरूप प्रतिबन्ध विद्यमान त्पत्ति वकल्पते । तत्क्षये च रहता है उसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं | हो सकती; उसका क्षय होजानेपर विद्योत्पत्तिः स्थानतश्चाविद्यानि ही ज्ञान होता है और तभी • वृत्तिस्तत आत्यन्तिकः संसारो- | अविद्याकी निवृत्ति होती है तथा उसके अनन्तर ही संसारकी परमः। आत्यन्तिक उपरति होती है । । अपि चानात्मदर्शिनो घना- इसके सिवा जो पुरुष अनात्म दी है उसे ही अनात्मवस्तु• शानादेव तु त्मविषयः कामः । सम्बन्धिनी कामना हो सकती है। कैवल्यम्' कामयमानश्च करो कामनावाला ही कर्म करता ति कर्माणि । ततस्तत्फलोप- है और उसीसे उनका फल भोगनेके भोगाय शरीराद्युपादानलक्षणः लिये उसे शरीरादिग्रहणरूप संसार की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत संसारः । तद्व्यतिरेकेणात्मैक- जो आत्मैकत्वदशी है उसकी दृष्टिमें विपयोंका अभाव होनेके कारण उसे त्वदर्शिनो विपयाभावात्कामानु-! उनकी कामना भी नहीं हो सकती। आत्मा तो अपनेसे अभिन्न है, इसस्पत्तिरात्मनि चानन्यत्वात्का-लिये उसकी कामना भी असम्भव मानुत्पत्तौ खात्मन्यवस्थानं मोक्ष होनेके कारण उसे खात्मस्वरूपमें |स्थित होनारूप मोक्ष सिद्ध ही है । इत्यतोऽपि.विद्याकर्मणोविरोधः। इसलिये भी ज्ञान और कर्मका विरोध
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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