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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
यत्वाद्विरोधः । विहितानि च ( विद्याक्त विधान करनेवाली
श्रुतियों ) से विरोध उपस्थित होता कर्माणि । स च विरोधो न है; और कोका विधान भी
किया हो गया है तथा सभी श्रुतियाँ युक्तः । प्रमाणत्वाच्छुतोनामिति प्रमाणभूत हैं इसलिये पूर्वोक्त" चेत् ?
विरोधका होना उचित नहीं है-यदि
ऐसा कहें तो? न पुरुषार्थोपदेशपरत्वाच्छृती- सिद्धान्ती-यह कथन ठीक नहीं,
। क्योंकि श्रुतियों परम पुरुषार्थका नाम् । विद्योपदेशपरातावच्छृतिः उपदेश करनेमें प्रवृत्त हैं। श्रुति
ज्ञानका उपदेश करनेमें तत्पर है । संसारात्पुरुषो मोक्षयितव्य इति उसे संतारसे पुरुषका मोक्ष कराना
है, इसके लिये संसारकी हेतुभूत . संसारहेतोरविद्याया विद्यया अविद्याकी विद्याके द्वारा निवृत्ति .
करना आवश्यक है; अतः वह निवृत्तिः कर्तव्येति विद्याप्रकाश- विद्याका प्रकाश करनेवाली होकर
'प्रवृत हुई है। इसलिये ऐसा कत्वेन प्रवृत्तेति न विरोधः। माननेसे कोई विरोध नहीं आता ।
एवमपि कादिकारकसद्भाव- पूर्व०-किन्तु ऐसा माननेपर भी प्रतिपादनपरं शास्त्र विरुध्यत पादन करनेवाले शातका तो उससे
तो कर्तादि कारककी सत्ताका प्रतिएवेति चेत् ?
। विरोध होता ही है ? न; यथाप्राप्तमेव कारकास्ति- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है।
खभावतः प्राप्त कारकोंके अस्तित्वको त्वमुपादायोपात्तदुरितक्षयार्थ
खोकार कर सञ्चित पापोंके क्षयके कर्माणि विदधच्छास्त्रं मुमुक्षुणां
लिये कर्मोका विधान करनेवाला | शास्त्र मुमुक्षुओं और फलकी