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तैत्तिरीयोपनिषद्
मन्त्रोदाहरणमुपपद्यते । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठेत्यपि चानुपपन्नं पृथग्न
हाणः प्रतिष्ठात्वेन ग्रहणम् ।
तस्मात्कार्यपतित एवानन्दमयो
न पर एवात्मा ।
[ चली २
ही हैं" इस मन्त्रका उल्लेख संगत हो सके । तथा 'ब्रह्म पुग्छ- प्रतिष्टा है' इस वाक्यके अनुसार प्रतिष्ठारूपसे ब्रह्मको पृथक् ग्रहण करना भी नहीं बन सकता । अतः यह आनन्दमय कार्यवर्ग अन्तर्गत हो है — परमात्मा नहीं है ।
आनन्द इति विद्याकर्मणोः
वह
'आनन्द' यह उपासना और कर्मका फल है, उसका विकार मानन्दमयकोश- फलं तद्विकार आ- | आनन्दमय कहलाता है । प्रतिणदनन् नन्दमयः । स च विज्ञानमय कोश से आन्तर है, क्योंकि विज्ञानमयादान्तरः । यज्ञा- विज्ञानमयकी अपेक्षा आन्तर बतलाया श्रुतिके द्वारा वह यज्ञादिके कारणभूत दिहेतोर्विज्ञानमयादस्यान्तरत्व- गया हैं । उपासना और कर्मका फल सबसे आन्तरतम होना चाहिये; सो भोक्ता के हो लिये है, इसलिये वह पूर्वोक्त सत्र कोशोंकी अपेक्षा आनन्दमय आत्मा आन्तरतम है ही; आन्तरतमश्चानन्दमय आत्मा क्योंकि विद्या और कर्म भी
पूर्वेभ्यः । विद्याकर्मणोः प्रियाद्यर्थत्वाच्च । प्रियादिप्रयुक्ते हि
विद्याकर्मणी । तस्मात्प्रियादीनां फलरूपाणामात्मसंनिकर्षाद्विज्ञानमयस्याभ्यन्तरत्वमुपपद्यते ।
[ प्रधानतया ] प्रिय आदिके हो लिये हैं । प्रिय आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से ही उपासना और कर्मका अनुष्ठान किया जाता है; अतः उनके फलरूप प्रिय आदिका आत्मासे सान्निध्य होने के कारण विज्ञानमयकी अपेक्षा इस ( आनन्दमय कोश ) का आन्तरतम होना उचित हो है ।
प्रियादिवासनानिर्वृतो ह्यानन्द - | प्रिय आदिकी वासनासे निष्पन्न
श्रुतेः । ज्ञानकर्मणोर्हि फलं भोक्त्रर्थत्वादान्तरतमं स्यात् ।