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________________ अनु०५] शाङ्करभाष्यार्थ १३३ : त्मनैवात्मन उपसंक्रमणं संभ- ही प्राप्त होना कभी सम्भव नहीं पति । खात्मनि भेदाभावात् । सर्वथा अभाव है और ब्रह्म भी है, क्योंकि अपने आत्मामें भेदका आत्मभूतं च ब्रह्म सङ्क्रमितुः। संक्रमण करनेवालेका आत्मा ही है। शिरआदिकल्पनानुपपत्तेश्च । [ आत्मामें ] शिर आदिकी न हि यथोक्तलक्षण आकाशादि- कल्पना असम्भव होनेके कारण भी [ आनन्दमय कार्यात्मा ही है ] । कारणेऽकार्यपतिते शिरआयवयव- आकाशादिके कारण और कार्यवर्गके रूपकल्पनोपपद्यते । “अदृश्ये- अन्तर्गत न आनेवाले उपर्युक्त लक्षणविशिष्ट आत्मामें शिर आदि ऽनात्म्येऽनिरुक्तनिलयने" (ते. | अवयवरूप कल्पनाका होना संगत उ० २ । ७।१) "अस्थूल- नहीं है । आत्मामें विशेष धर्मोका मनणु" (वृ० उ०३ ८1८)। बाध करनेवाली "अदृश्य, अशरीर, "नेति नेत्यात्मा" (वृ००३।९। अनिर्वचनीय और अनाश्रयमें" "स्थूल और सूक्ष्मसे रहित" "आत्मा २६) इत्यादिविशेषापोहश्रुति | यह नहीं है यह नहीं है" इत्यादि भ्यश्च । | श्रुतियोंसे भी यहीबातसिद्ध होती है।। मन्त्रोदाहरणानुपपत्तेश्च । न [आनन्दमयको यदि आत्मा माना जाय तो ] आगे कहे हुए हि प्रियशिरआद्यवयवविशिष्टे मन्त्रका उदाहरण देना भी नहीं प्रत्यक्षतोऽनुभूयमान आनन्दमय बनता । शिर आदि अवयवोंसे युक्त आनन्दमय आत्मारूप ब्रह्मके प्रत्यक्ष आत्मान ब्रह्माण नास्ति ब्रह्मत्या-| अनुभव होनेपर तो ऐसी शंका ही शङ्काभावात् "असन्नेव स नहीं हो सकती कि ब्रह्म नहीं है, जिससे कि [ उस शंकाकी निवृत्तिभवति । असद्ब्रह्मेति वेद चेत्" जो परुष, ब्रह्म नहीं (तै० उ० २।६।१) इति है-ऐसा जानता है वह असद्रूप
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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