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________________ तैत्तिरीयोपनिपद् [ वल्ली १ न च कर्महेतूनां कामानां | इसके सिवा कर्मकी हेतुभूत कामनाओंकी निवृत्ति भी ज्ञानके ज्ञानाभावे निवृत्त्यसंभवादशेप- अभावमें असम्भव होनेके कारण उन (नित्य कर्मों) के द्वारा सम्पूर्ण कर्मक्षयोपपत्तिः । अनात्मविदो कर्मोका क्षय होना सम्भव नहीं है, हि कामोऽनात्मफलविषयत्वात् । क्योंकि अनात्मफलविषयिणी होनेके कारण कामना अनात्मवेत्ताको ही खात्मनि च कामानुपपत्तिनित्य- हुआ करती है। आत्मामें तो कामना का होना सर्वथा असम्भव है, क्योंकि प्राप्सत्वात् । स्वयं चात्मा परं। । वह नित्यप्राप्त है। और यह तो कहा ही जा चुका है कि स्वयं आत्मा ही ब्रह्मत्युक्तम् । .परब्रह्म है। नित्यानांचाकरणमभावस्ततः तथा नित्यकर्मोका न करना तो अभावरूप है, उससे प्रत्यवाय होना प्रत्यवायानुपपत्तिरिति । अतः असम्भव है । अतः नित्यकर्मोका न पूर्वोपचितदुरितेभ्यःप्राप्यमाणा- करना यह पूर्वसञ्चित पापोंसे प्राप्त होनेवाली प्रत्यवायक्रियाका ही याःप्रत्यवायक्रियायानित्याकरण, लक्षण है । इसलिये "अकुर्वन् लक्षणमिति "अकुर्वन्विहितं कर्म" विहितं कर्म' इस वाक्यके 'अकुर्वन्' पदमें 'शत' प्रत्ययका (मनु० ११ । ४४) इति शतु- होना अनुचित नहीं है । अन्यथा र्नानुपपत्तिः । अन्यथाभावाद्भा अभावसे भावकी उत्पत्ति सिद्ध होने | के कारण सभी प्रमाणोंसे विरोध हो वोत्पत्तिरिति सर्वप्रमाणव्याकोप जायगा । अतः ऐसा मानना सर्वथा इति । अतोऽयत्नतः स्वात्मन्य अयुक्त है कि [ कर्मानुष्ठानसे ] अनायास ही आत्मस्वरूपमें स्थिति वस्थानमित्यनुपपन्नम् । हो जाती है। .:
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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