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अनु० १]
. शाङ्करभाष्यार्थ
- यच्चोक्तंनिरतिशयप्रीतेः स्वर्ग- और यह जो कहा कि 'स्वर्ग' शब्दवाच्यायाः कर्मनिमित्तत्वा
____ शब्दसे कही जानेवाली निरतिशय
प्रीति कर्मनिमित्तंक होनेके कारण स्कारब्ध एव मोक्ष इति, तन्नः | मोक्ष कर्मसे ही आरम्भ होनेवाला है, नित्यत्वान्मोक्षस्य । न हि नित्यं
सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि
| मोक्ष नित्य है और किसी भी नित्य किञ्चिदारभ्यते । लोके यदारब्धं । वस्तुका आरम्भ नहीं किया जाता;
लोकमें जिस वस्तुका भी आरम्भ तदनित्यमिति । अतो न कर्मा
होता है वह अनित्य हुआ करती रब्धो मोक्षः।
है; इसलिये मोक्ष कारब्ध नहीं है । विद्यासहितानां कर्मणां नि- पूर्व०-ज्ञानसहित कोंमें तो त्यारम्भसामर्थ्यमिति चेत् ?
| नित्य मोक्षके आरम्भ करनेकी भी
सामर्थ्य है ही? न; विरोधात् । नित्यं चा- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि ऐसा
माननेसे विरोध आता है; मोक्ष नित्य रम्यत इति विरुद्धम् ।
है और उसका आरम्भ किया जाता
है-ऐसा कहना तो परस्परविरुद्ध है। यद्विनष्टं तदेव नोत्पद्यत इति । पूर्व०-जो वस्तु नष्ट हो जाती
है वही फिर उत्पन्न नहीं हुआ प्रध्वंसाभाववन्नित्योऽपि मोक्ष करती, अतः प्रध्वंसाभावके समान
| नित्य होनेपर भी मोक्षका आरम्भ आरभ्य एवेति चेत् ?
किया ही जाता है। ऐसा मानें तो? न; मोक्षस्य भावरूपत्वात । सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि मोक्ष
| तो भावरूप है । प्रध्वंसाभाव भी प्रध्वंसाभावोऽप्यारभ्यत इति आरम्भ किया जाता है यह न न
संभवति ; संभवत .
अभावस्य |
संभव नहीं; क्योंकि अभावमें
लकोई विशेषता न होनेके कारण यह विशेपाभावाद्विकल्पमात्रमेतत् । तो केवल विकल्प ही है । भावका