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________________ तैत्तिरीयोपनिषद् [वल्ली १ ८० कर्मनिमित्तत्वाद्विद्याया यत्ना- पूर्व०-ज्ञान कर्मकेनिमित्तसे होनेन्तरानर्थक्थमिति चेत्कर्मभ्य एव! | वाला है, इसलिये भी अन्य प्रयत्नकी निरर्थकता सिद्ध होती है यदि कर्मोपूर्वोपचितदुरितप्रतिबन्धक्षयादेव के द्वारा ही पूर्वसञ्चित पापरूप प्रतिविद्योत्पद्यते चेत्कर्मभ्यः पृथगुप वन्धका क्षय होनेपर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है तो कमोसे भिन्न उपनिपच्छ्व• निपच्छ्रवणादियनोऽनर्थक इति णादिविषयक प्रयत्न व्यर्थ ही है। चेत् । ऐसा मानें तो? न; नियमाभावात् । न हि सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि ऐसा प्रतिवन्धक्षयादेव विद्योत्पद्यते न कोई नियम नहीं है-'ज्ञानकी उत्पत्ति त्वीश्वरप्रसादतपोध्यानाद्यनुष्ठा प्रतिबन्धके क्षयसे ही होती है, ईश्वरकृपा तप एवं ध्यानादिके नादिति नियमोस्ति । अहिंसा- | अनुष्ठानसे नहीं हो सकती' ऐसा ब्रह्मचर्यादीनां च विद्या प्रत्युप कोई नियम नहीं है क्योंकि अहिंसा एवं ब्रह्मचर्यादि भी ज्ञानोत्पत्तिमें कारकत्वात्साक्षादेव च कारणत्वा उपयोगी हैं तथा श्रवण, मनन और च्छ्रवणमनननिदिध्यासनानाम् । निदिध्यासनादि तो उसके साक्षात् अतः सिद्धान्याश्रमान्तराणि | कारण ही हैं । अतः अन्य आश्रमोंसर्वेषां चाधिकारो विद्यायां परं का होना सिद्ध ही है, तथा ज्ञानमें | सभी आश्रमियोंका अधिकार है । च श्रेयः केवलाया विद्याया | इससे यह सिद्ध हुआ कि परमश्रेयकी एवेति सिद्धम् । प्राप्ति केवल ज्ञानसे ही हो सकती है। इति शीक्षावल्ल्यामेकादशोऽनुवाकः ॥ ११ ॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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