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________________ अनु०१०] शाङ्करभाष्यार्थ ५५ - सुमेधाः शोभना मेधा सर्व- सुमेधा-जिस मेरी मेधा शोभन अर्थात् सर्वज्ञत्वलक्षणवाली है वह ज्ञलक्षणा यस्य मम सोऽहं । मैं सुमेधा हूँ । संसारकी स्थिति, सुमेधाः । संसारस्थित्युत्पत्त्युप- उत्पत्ति और संहार-इसका कौशल संहारकौशलयोगात्सुमेधस्त्वम् । होने के कारण मेरा सुमेधस्त्व है। । इसीसे मैं अमृत-अमरणधर्मा और अत एवामृतोऽमरणधर्माक्षितो- अक्षित-अक्षीण यानी अव्यय अथवा ऽक्षीणोऽव्ययः, अक्षतोबा अमृतेन, अक्षय हूँ । अथवा, [तृतीयातत्पुरुप समास माननेपर ] अमृतेन उक्षितः बोक्षितः सिक्तः। "अमृतोक्षितो अमृतसे सिक्त हूँ। "मैं अमृतसे ऽहम्" इत्यादि ब्राह्मणम् । उक्षित हूँ" ऐसा ब्राह्मणवाक्य भी है। इत्येवं त्रिशकोपर्ब्रह्मभृतस्य इस प्रकार यह ब्रह्मभूत ब्रह्मवेत्ता } ब्रह्मविदो वेदानुवचनम् । वेदोरेट वेदन अर्थात् आत्मैकत्वविज्ञान | त्रिशंकु ऋपिका वेदानुवचन है। वेदनमात्मैकत्वविज्ञानं तस्य को कहते हैं उसकी प्राप्तिके अनु पीछेका वचन 'वेदानुवचन' प्राप्तिमनु वचनं चेदानुवचनम् कहलाता है । तात्पर्य यह है कि आत्मनः कृतकृत्यताख्यापनार्थ अपनी कृतकृत्यता प्रकट करनेके वामदेववत्रिशङ्खनाण दर्शनेन | लिये वामदेवके समान * त्रिशङ्क ऋद्विारा आर्पदृष्टिसे देखा हुआ दृष्टो मन्त्रानाय आत्मविद्या यह मन्त्राम्नाय आत्मविद्याका प्रकाश प्रकाशक इत्यर्थः। करनेवाला है। अस्य च जपो विद्योत्पत्त्य- इसका जप विद्याकी उत्पत्तिके. र्थोऽवगम्यते । ऋतं चेत्यादि- लिये माना जाता है। इस 'ऋतं * देखिये ऐतरेयोपनिपट २ । १ । ५
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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