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अनु० १ ]
परिच्छेदोऽस्ति । न तु कालतश्चानन्त्यं वस्तुतश्चाकाशस्य । कस्मात्कार्यत्वात् । नैवं ब्रह्मण आकाशवत्कालतोऽप्यन्तवत्वम
कार्यत्वात् । कार्य हि वस्तु कालेन परिच्छिद्यते । अकार्य च ब्रह्म । तस्मात्कालतोऽस्यानन्त्यम् ।
शाङ्करभाष्यार्थ
तथा वस्तुतः । कथं पुनर्वस्तुत आनन्त्यं सर्वानन्यत्वात्। भिन्नं हि
वस्तु वस्त्वन्तरस्यान्तो भवति, चस्त्वन्तरबुद्धिहिं प्रसक्ताद्वस्त्व
न्तरान्निवर्तते । यतो यस्य बुद्धे
विनिवृत्तिः स तस्यान्तः । तद्यथा गोत्वबुद्धिरश्वत्वाद्विनिवर्तत इति
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परिच्छेद नहीं है। किन्तु कालसे और वस्तुसे आकाशकी अनन्तता नहीं है । क्यों नहीं है ? क्योंकि वह कार्य हैं । किन्तु आकाशके समान किसीका कार्य न होनेके कारण अन्तवत्य नहीं है । जो वस्तु किसीनलका इस प्रकार कालसे भी का कार्य होती है यही कालले परिच्छिन्न होती हैं । और ब्रह्म किसीका कार्य नहीं है, इसलिये उसकी कालसे अनन्तता है ।
इसी प्रकार वह वस्तुसे भी अनन्त है । वस्तुसे उसकी अनन्तता किस प्रकार है ? क्योंकि वह सबसे अभिन्न है । भिन्न वस्तु ही किसी अन्य भिन्न वस्तुका अन्त हुआ करती है, क्योंकि किसी भिन्न वस्तु में गयी हुई बुद्धि ही किसी अन्य प्रसक्त वस्तुसे निवृत्त की जाती है । जिस [ पदार्थसम्बन्धिनी] बुद्धिकी जिस पदार्थसे निवृत्ति होती है वही उस पदार्थका अन्त है । जिस प्रकार गोबुद्ध अवत्वबुद्धिसे निवृत्त होती
अश्वत्वान्तं गोत्वमित्यन्तवदेव | है, अतः गोल्यका अन्त अश्वत्व हुआ, इसलिये वह अन्तवान् ही है और भवति । स चान्तो भिन्नेषु वस्तुषु ! उसका वह अन्त भिन्न पदार्थों में ही दृष्टः । नैवं ब्रह्मणो भेदः । अतो | देखा जाता है । किन्तु ब्रह्मा ऐसा कोई भेद नहीं है । अतः वस्तुसे वस्तुतोऽध्यानन्त्यम् । भी उसकी अनन्तता है ।