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________________ १४० तैत्तिरीयोपनिषद् [ वल्ली २ रम्भणमात्रेऽस्तित्वमाविता बुद्धि- में ही, जो कि केवल वाणीसे ही | उच्चारण किये जानेवाले हैं, अस्तित्वस्तद्विपरीते व्यवहारातीते नास्ति- की भावनासे भावित हुई बुद्धि | उनसे विपरीत व्यवहारातीत पदार्थोंत्वमपि प्रतिपद्यते । यथा घटा- में अस्तित्वका भी अनुभव नहीं करती; जैसे कि [जल लाना आदि] दिर्व्यवहारविषयतयोपपन्नः सं- व्यवहारके विषयरूपसे उपपन्न हुआ घट आदि पदार्थ 'सत्' और उससे स्तद्विपरीतोऽसन्निति प्रसिद्धम् । विपरीत [ बन्ध्यापुत्रादि ] 'असत्' होता है-इस प्रकार प्रसिद्ध है । एवं तत्सामान्यादिहापि स्याद्रह्म- उसी प्रकार उसकी समानताके कारण यहाँ भी ब्रह्मके अविद्यमानत्वणो नास्तित्वप्रत्याशङ्का । तसा- | के विपयमें शंका हो सकती है। | इसीलिये कहा है-'ब्रह्म है-ऐसा दुच्यते-अस्ति ब्रह्मोति चेद्वेदेति । रात । यदि कोई जानता है' इत्यादि । किं पुनः स्यात्तदस्तीति वि- किन्तु 'वह (ब्रल) है' ऐसा जाननेवाले पुरुषको क्या फल मिलता जानतस्तदाह-सन्तं विद्यमान है ? इसपर कहते हैं-ब्रह्मवेत्तालोग ब्रह्मस्वरूपेण परमार्थसदात्मापन इस प्रकार जाननेवाले इस पुरुपको सत्-विद्यमान अर्थात् ब्रह्मरूपसे मेनमेवंविदं विदुब्रह्मविदस्ततः परमार्थ सत्वरूपको प्राप्त हुआ समझते हैं। तात्पर्य यह है कि इस कारणसे ब्रह्मके अस्तित्वको तसादस्तित्ववेदनात्सोऽन्येषां जाननेके कारण वह दूसरोंके लिये ब्रह्मके समान जाननेयोग्य हो ब्रह्मवद्विज्ञेयो भवतीत्यर्थः। जाता है। अथवा यो नास्ति ब्रह्मोति अथवा जो पुरुष 'ब्रह्म नहीं मन्यते स सर्वस्यैव सन्मार्गस्य है' ऐसा मानता है वह अश्रद्धालु | होनेके कारण, वर्णाश्रमादि व्यवस्थावर्णाश्रमादिव्यवस्थालक्षणस्याश्र- ] रूप सारे ही शुभमार्गका,
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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