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अनु० ६ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
प्राप्त होता है या नहीं ? [ इन प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये आचार्य भूमिका बाँधते हैं - ] उस परमात्माने कामना की 'मैं बहुत हो जाऊँ अर्थात् मैं उत्पन्न हो जाऊँ' । अतः उसने तप किया । उसने तप करके - ही यह जो कुछ है इस सबकी रचना की । इसे रचकर वह इसीमें अनुप्रविष्ट हो गया । इसमें अनुप्रवेश कर वह सत्यस्वरूप परमात्मा मूर्त्त - अमूर्त, [ देशकालादि परिच्छिन्नरूपसे ] कहे जानेयोग्य, और न कहे जानेयोग्य, आश्रय-अनाश्रय, चेतन-अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य-असत्यरूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग 'सत्य' इस नामसे पुकारते हैं। उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥
अन्नेव सत्सम एव यथा
सदसद्वादिनोदः
सन पुरुषार्थसंच न्ध्येवं स भवति
अपुरुषार्थसंवन्धी । कोऽसौ १
योऽसदविद्यमानं ब्रह्मेति वेद
विजानाति चेद्यदि । तद्विपर्ययेण
यत्सर्वविकल्पास्पदं सर्वप्रवृत्ति -
चीजं सर्वविशेषप्रत्यस्तमितमप्य
स्ति तोति वेद चेत् । कुतः पुनराशङ्का तन्नास्तित्वे ?
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जिस प्रकार असत् (अविद्यमान ) पदार्थ पुरुषार्थसे सम्बन्ध रखनेवाला नहीं होता उसी प्रकार वह भी असत् - असत्के समान ही पुरुषार्थसे सम्वन्ध नहीं रखनेवाला हो जाता है वह कौन ? जो 'ब्रह्म असत् -- अविद्यमान है' ऐसा जानता है । 'चेत्' शब्दका अर्थ 'यदि' है । इसके विपरीत 'जो तत्व सम्पूर्ण विकल्पोंका आश्रय, सम्पूर्ण विशेपोंसे रहित भी है वही समस्त प्रवृत्तियोंका बीजरूप और तो उसे ब्रह्मवेत्तालोग सद्रूप समझते ब्रह्म है' ऐसा यदि कोई जानता है [ हैं इस प्रकार इसका आगे के वाक्यसे सम्बन्ध है ] |
किन्तु ब्रह्मके अस्तित्वाभाव के विपयमें शंका क्यों की जाती है ? व्यवहारातीतत्वं ब्रह्मण इति | [ इसपर ] हमारा यह कथन है कि ब्रह्म व्यवहारसे परे है । [ इसी लिये ] व्यवहार के विपयभूत पदार्थों
ब्रूमः । व्यवहारविषये हि वाचा - [