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________________ २०८ तैत्तिरीयोपनिपद् [वल्ली ३ सैव ब्रह्म विजिज्ञासखेत्यर्थः। है कि तू तपसे ही ब्रह्मको जाननेकी ऋज्वन्यत् ॥ १॥ | इच्छा कर । शेप अर्थ सरल है ॥१॥ इति भृगुवल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाका ॥२॥ वृतीय अतुवाक प्राण ही ब्रह्म है---ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके उपदेशसे पुनः तप करना । प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् । प्राणाय व खल्विमानि भूतानि जायन्ते । प्राणेन जातानि जीवन्ति । प्राणं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख । तपो ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥ प्राण ब्रह्म है-ऐसा जाना। क्योंकि निश्चय प्राणसे ही ये प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर प्राणसे ही जीवित रहते हैं और मरणोन्मुख होनेपर प्राणमें ही लीन हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुणके पास आया। [ और बोला-] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये।' उससे वरुणने कहा-'तू तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर । . तप ही ब्रह्म है ।' तब उसने तप किया और उसने तप करके-॥१॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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