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________________ अनु०२ ] शाङ्करभाष्यार्थ इच्छा कर, तप ही बल है ।' तब उसने तप किया और उसने तप करके - ॥ १ ॥ २०७ अन्नं ब्रह्मेति व्यजानाद्वि } अन्न ब्रह्म है - ऐसा जाना । वही | ज्ञातवान् तद्धि यथोक्तलक्षणो उपर्युक्त लक्षणसे युक्त है। सो कैसे ? पेतम् । कथम् ? अन्नाद्रथेव क्योंकि निश्चय अन्नसे ही ये सव खल्विमानि भूतानि जायन्ते प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर अन्नसे ही जीवित रहते हैं तथा अन्नेन जातानि जीवन्ति अन्नं मरणोन्मुख होनेपर अन्नमें ही लीन प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति तस्मा हो जाते हैं । अतः तात्पर्य यह है द्युक्तमन्नस्य ब्रह्मत्वमित्यभि- |कि अन्नका ब्रह्मरूप होना ठीक ही प्रायः । स एवं तपस्तप्त्वान्नं है । वह इस प्रकार तप करके तथा ब्रह्मेति विज्ञायान्नलक्षणेनोप- | अन्नके लक्षण और युक्तिके द्वारा 'अन्न ही ब्रह्म है' ऐसा जानकर फिर भी पच्या च पुनरेव संशयमापन्नो वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । संशयग्रस्त हो पिता वरुणके पास आया [ और बोला - ] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये' । कः पुनः संशयहेतुरस्येत्युच्यते-अन्नस्योत्पत्तिदर्शनात् । तपसः पुनःपुनरुपदेशः साधना परन्तु इसमें उसके संशयका कारण क्या था ? सो बतलाया जाता है । अन्नको उत्पत्ति देखने से [ उसे ऐसा सन्देह हुआ ] । यहाँ तपका जो वारम्वार उपदेश किया गया है वह उसका प्रधानसाधनत्व प्रदर्शित करनेके लिये है । अर्थात् जबतक ब्रह्मका लक्षण निरतिशय न हो जाय और जबतक तेरी जिज्ञासा शान्त न हो तबतक तप तावत्तप एव ते साधनम् । तप- | ही तेरे लिये साधन है । तात्पर्य यह तिशयत्वावधारणार्थः । यावद्र ह्मणो लक्षणं निरतिशयं न भवति यावच जिज्ञासा न निवर्तते .
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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