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________________ अनु० ४] शाङ्करभाष्यार्थ तेस्तत्कर्मत्वात् । कुर्वाणा निर्वत- धातुका अर्थ विस्तार करना ही है; यन्ती, अचीरमचिरं क्षिप्रमेव, छान्दसो दीर्घः; चिरं वा कुर्वा | अचिर अर्थात् शीघ्र ही; 'अचीरम्' में | दीर्घ ईकार वैदिक प्रक्रियाके अनुसार णा आत्मनो मम, किमित्याह-है। अथवा चिरं (चिरकालतक) यासांसि वस्त्राणि मम गावश्च आत्मनः-मेरे लिये करनेवाली, क्या गाश्चेति यावत् , अन्नपाने च करनेवाली ? सो बतलाते हैं मेरे वस्त्र, सर्वदेवमादीनि कुर्वाणा श्रीर्या गा और गौ और अन्न-पान इन्हें जो श्री सदा " ही करनेवाली है उसे, बुद्धि प्राप्त तां ततो मेधानिर्वर्तनात्परमा भरमा करानेके अनन्तर त मेरे पास ला, चहानय । अमघसा हि श्रारन क्योंकि बुद्धिहीनके लिये तो लक्ष्मी यैवेति । अनर्थका ही कारण होती है। किविशिष्टाम् । लोमशामजाव्या- किन विशेषणोंसे युक्त श्रीको लावे ? लोमश अर्थात् भेड़-बकरी दियुक्तामन्यैश्च पशुभिः संयुक्ता आदि ऊनवालोंके सहित और अन्य पशुओंसे युक्त श्रीकोला । यहाँ आवह' मावहत्यधिकारादोङ्कार एवाभि | क्रियाका अधिकार होनेके कारण संवध्यते । स्वाहा स्वाहाकारो [उसके कर्ता] ओंकारसे ही सम्बन्ध है । खाहा-यह वाहाकार होमार्थ होमार्थमन्त्रान्तज्ञापनार्थः । आ- मन्त्रोंका अन्त सूचित करनेके लिये है। [ 'आ मायन्तुब्रह्मचारिणः' इस यन्तु मामिति व्यवहितेन सं- वाक्यमें ] 'आयन्तु माम्' इस प्रकार 'आ' काव्यवधानयुक्त 'यन्तु' शब्दसे बन्धः । ब्रह्मचारिणो विमायन्तु सम्बन्ध है । [इसी प्रकार मेरे प्रति] ब्रह्मचारीलोग निष्कपट हों । वे प्रमाप्रमायन्तु दमायन्तु शमायन्वि को धारण करें, इन्द्रिय-निग्रह करें, त्यादि ॥१-२॥ मनोनिग्रह करें इत्यादि ॥ १-२॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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