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________________ सप्तम अनुकाक बाकी सुकृतता एवं आनन्दरूपताका तथा ब्रह्मवेत्ताकी ___ अभयप्राप्तिका वर्णन असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । तदात्मान खयमकुरुत । तस्माचत्सुकृतमुच्यत इति । यद्वै तत्सुकृतं : रसो वै सः। रस ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति । को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्यवानन्दयाति । यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । अथ सोऽभयं गतो भवति । यदा ह्येवैप एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते । अथ तस्य भयं भवति । तत्त्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य । तदप्येष श्लोको भवति ॥१॥ पहले यह [ जगत् ] असत् ( अव्याकृत ब्रह्मरूप.) ही था। उसीसे सत् ( नाम-रूपात्मक व्यक्त) की उत्पत्ति हुई। उस असत्ने खयं अपनेको ही नाम-रूपात्मक जगदुरूपसे ] रचा। इसलिये वह सुकृत ( स्वयं रचा हुआ ) कहा जाता है । वह जो प्रसिद्ध सुकृत है सो निश्चय रस ही है । इस रसको पाकर पुरुर आनन्दी हो जाता है । यदि हृदयाकाशमें स्थित यह आनन्द (आनन्दस्वरूप आत्मा ) न होता तो कौन व्यक्ति अपान-क्रिया करता और कौन प्राणन-क्रिया करता? यही तो उन्हें आनन्दित करता है। जिस समय यह साधक इस अदृश्य, अशरीर, अनिर्वाच्य और निराधार ब्रह्ममें अभय-स्थिति 'प्राप्त करता है.उस २१-२२
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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