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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वली २
समय यह अभयको प्राप्त हो जाता है; और जब यह इसमें थोड़ा-सा भी भेद करता है तो इसे भय प्राप्त होता है । वह ब्रह्म ही भेददर्शी विद्वान्के लिये भयरूप है । इसी अर्थमें यह श्लोक है ॥ १ ॥ असता इदमग्र आसीत् ।। पहले यह [ जगत् ] असत् ही ।
| था । 'असत्' इस शब्दसे, जिनके असच्छब्द- असदिति व्याकृत
नाम-रूप व्यक्त हो गये हैं उन वाच्याव्याकृता- नामरूपविशेषविप- विशेप पदार्थोसे विपरीत खभाववाला जगदुत्पत्तिः रीतरूपमव्याकृतं | अव्याकृत ब्रह्म कहा जाता है।
इससे [वन्व्यापुत्रादि] अत्यन्त ब्रह्मोच्यते । न पुनरत्यन्तमेवा
असत् पदार्थ बतलाये जाने अभीष्ट सत् । न ह्यसतः सञ्जन्मास्ति । | नहीं हैं, क्योंकि असत्से सत्का
जन्म नहीं हो सकता। 'इदम्' इदमिति नामरूपविशेषवव्याकृतं, अर्थात् नाम-रूप विशेपसे युक्त जगदग्रे पूर्व प्रागत्पत्ते-होचास- व्याकृत जगत् अग्रे-पहले अर्थात्
उत्पत्तिसे पूर्व 'असत्' शब्दवाच्य च्छन्दवाच्यमासीत् । ततोऽसतो ब्रह्म ही था । उस असत्से ही
सत् यानी जिसके नाम-रूपका वै सत्प्रविभक्तनामरूपविशेष
विभाग हो गया है उस विशेषकी मजायतोत्पन्नम्। | उत्पत्ति हुई।
किं ततः प्रविभक्तं कार्यमिति तो क्या पितासे पुत्रके समान पितुरिव पुत्रः, नेत्याह । तदस
यह कार्यवर्ग उस [ब्रह्मसे] विभिन्न
" है ? इसपर श्रुति कहती है-'नहीं; च्छन्दवाच्यं खयमेवात्मानमेवा- | उस 'असत्' शब्दवाच्य ब्रह्मने स्वयं 'कुरुत कृतवत् । यस्मादेवं तस्मा- अपनेको ही रचा। क्योंकि ऐसी ब्रह्मैव सुकृतं स्वयंकत्रुच्यते ।।
बात है इसलिये वह ब्रह्म ही सुकृत स्वयंकत ब्रह्मोति प्रसिद्ध लोके
| अर्थात् खर्यकर्ता कहा जाता है,
सबका कारण होनेसे ब्रह्म खयंकर्ता सर्वकारणत्वात् ।
। है-~यह बात लोकमें प्रसिद्ध है ।