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________________ ९४ तैत्तिरीयोपनिषद् [वल्ली २ भावाद्विज्ञानानुपपत्तिः। आत्म-सम्भव ही नहीं है । आत्माका - विज्ञेयत्व स्वीकार करनेपर तो ज्ञाताके नश्च विज्ञेयत्वे ज्ञानभावप्रसङ्ग, अभावका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता है, क्योंकि वह तो विज्ञयरूपसे ही ज्ञेयत्वेनैव विनियुक्तत्वात् । विनियुक्त (प्रयुक्त) हो चुका है। [अब उसे ज्ञाता कैसे माना जाय ?] एक एवात्मा ज्ञेयत्वेन ज्ञात- शंका-एक ही आत्मा ज्ञेय और , ज्ञाता दोनों प्रकारसे हो सकता हैत्वेन चोभयथा भवतीति चेत् ? ' ऐसा मानें तो? न युगपदनंशत्वात् । न हि समाधान-नहीं, वह अंशरहित निरवयवस्य युगपज्ज्ञयज्ञातृत्वो होनेके कारण एक साथ उभयरूप नहीं हो सकता । निरवयव ब्रह्मका पपत्तिः आत्मनश्च घटादिवद्विजे- एक साथ ज्ञेय और ज्ञाता होना यत्वे ज्ञानोपदेशानर्थक्यम् । न । सम्भव नहीं है । इसके सिवा यदि हि घटादिवत्प्रसिद्धय ज्ञानोप | आत्मा घटादिके समान विज्ञेय हो तो ज्ञानके उपदेशको व्यर्थता हो देशोऽर्थवान् । तसाज्ज्ञातृत्वे जायगी । जो वस्तु घटादिके समान सति आनन्त्यानुपपत्तिः । प्रसिद्ध है उसके ज्ञानका उपदेश सार्थक नहीं हो सकता । अतः सन्मात्रत्वं चानुपपन्नं ज्ञान- 3 उसका ज्ञातृत्व माननेपर उसर्क कर्तृत्वादिविशेषवत्त्वे सति । स- | अनन्तता नहीं रह सकती । ज्ञानन्मात्रत्वं च सत्यत्त्वम्, "तत्स कर्तृत्वादि विशेषसे युक्त होनेपर उसका सन्मात्रत्व भी सम्भव नहीं त्यम्" (छा० उ० ६१८१६) है । और "वह सत्य है" इस एक इति श्रुत्यन्तरात् । तस्मा अन्य श्रुतिसे उसका सत्यरूप होना ही सन्मात्रत्व हैं । अतः 'सत्य' और त्सत्यानन्तशन्दाभ्यां सह विशे- 'अनन्त' शब्दोंके साथ विशेषण
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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