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________________ • अनु१] । शाङ्करभाष्यार्थ . पणत्वेन ज्ञानशब्दस्य प्रयोगा- रूपसे 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग किया जानेके कारण वह भाववाचक है । द्भावसाधनो ज्ञानशब्दः । ज्ञानं अतः'ज्ञानं ब्रह्म' इस विशेषणका उसके ब्रहोति कतत्वादिकारकनिवृत्यर्थ कर्तृत्वादि कारकोंकी निवृत्ति के लिये _ तथा मृत्तिका आदिके समान उसकी मृदादिवदचिद्रूपतानिवृत्यर्थं च जडरूपताकी निवृत्तिके लिये प्रयोग प्रयुज्यते । किया जाता है। — ज्ञानं ब्रहोतिवचनात्प्राप्तमन्त- 'ज्ञानं ब्रह्म' ऐसा कहनेसे ब्रह्मका अनन्तमित्यन्य ववम् । लौकिकस्य अन्तवत्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि निक्ति ज्ञानस्यान्तवर्ग लयाकक ज्ञान अन्तवान् ही देखा गया है । अतः उसको निवृत्तिनात । अतस्तन्निवृत्त्यर्थमाह- के लिये 'अनन्तम्' ऐसा कहा अनन्तमिति । सत्यादीनामनृतादिधर्मनिवृत्ति- शंका-सत्यादि शब्द तो अनृतादि धर्मोको निवृत्तिके लिये हैं प्रामणः शून्यार्थ- परत्वाद्विशेष्यस्य । और उनका विशेष्य ब्रह्म कमल त्यमाशगते ब्रह्मण उत्पलादि-आदिके समान प्रसिद्ध नहीं है; अतः वदग्रसिद्धत्वात् "मृगतृष्णाम्भसि “मृगतृष्णाके जलमें स्नान करके शिरपर आकाशकुसुमका मुकुट स्नातः खपुष्पकृतशेखरः । धारण किये तथा हाथमें शशशृङ्गका एप बन्ध्यासुतो याति शशशृङ्ग धनुप लिये यह वन्ध्याका पुत्र जा रहा है" इस उक्तिके समान इस धनुधर हातवच्छन्यायतव | 'सत्यं ज्ञानम्' इत्यादि वाक्यकी प्राप्ता सत्यादिवाक्यस्येति चेत् ? शून्यार्थता ही प्राप्त होती है। .. नलक्षणार्थत्वात् । विशे- समाधान नहीं, क्योंकि वे पणत्वेऽपि सत्यादीनां. लक्षणार्थ- [सत्यादि] लक्षण करनेके लिये हैं।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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