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________________ । अनु० ४] शाङ्करभाप्यार्थ.. २३ ' भत्वमोङ्कारस्य । ओङ्कारो ओंकारको श्रेष्ठता है । यहाँ ओंकार । ह्यत्रोपास्य इति ऋषभादि- ही उपासनीय है, इसलिये 'ऋषभ' | आदि शब्दोंसे ओंकारकी स्तुति की शब्दैः स्तुतियाय्यैवोङ्कारस्य । गरस्य । जानी उचित ही है । छन्द अर्थात् छन्दोभ्यो वेदेभ्यो वेदा एमृतं वेदोंसे-वेद ही अमृत हैं, उस तसादमृतादधिसंवभूव । लोक- अमृतसे जो प्रधानरूपसे हुआ है। तात्पर्य यह है कि लोक, देव, वेद देववेदव्याहृतिभ्यः सारिष्ठं | और व्याहृतियोंसे सर्वोत्कृष्ट सार ग्रहण जिघृक्षोः प्रजापतेस्तपस्यत करनेकी इच्छासे तप करते हुए प्रजा ओङ्कारः सारिष्ठत्वेन प्रत्यभा- | पतिको ओंकार ही सर्वोत्तम साररूपसे दित्यर्थः । न हि नित्यस्योङ्कार भासित हुआ था, क्योंकि नित्य ओंकारकी साक्षात् उत्पत्तिकी कल्पना स्याञ्जसवोत्पत्तिरेत्र कल्प्यते । नहीं की जा सकती। वह इस स एवंभूत ओङ्कार इन्द्रः सर्व- प्रकारका ओंकाररूप इन्द्र-सम्पूर्ण कामेशः परमेश्वरो मा मां मेधया कामनाओंका स्वामी परमेश्वर मुझे मेधाद्वारा प्रसन्न अथवा सबल करे प्रज्ञया स्पृणोतु प्रीणयतु बलयतु इस प्रकार यहाँ बुद्धिबलके लिये वा । प्रज्ञावलं हि प्रार्थ्यते । प्रार्थना की जाती है | अमृतस्य अमृतत्वहेतुभूतस्य हे देव ! मैं अमृत-अमृतत्वके ब्रह्मज्ञानस्य तदधिकारात्, हे | हेतुभूत ब्रह्मज्ञानका धारण करने वाला होऊँ, क्योंकि यहाँ ब्रह्मज्ञानदेव धारणो धारयिता भूयासं का ही प्रसङ्ग है । तथा मेरा शरीर भवेयम् । किं च शरीरं मे मम | विचर्षण-विचक्षण अर्थात् योग्य विचर्षणं विचक्षणं योग्यमित्ये- | हो। [मूलमें 'भूयासम्' (होऊँ) यह उत्तम पुरुषका प्रयोग है इसे ] तत् । भूयादिति प्रथमपुरुष- भयात होडस प्रकार प्रथम पलविपरिणामः । जिह्वा मे मधु-1 में परिणत कर लेना चाहिये । मेरी
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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