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अनु० ४]
शाङ्करभाप्यार्थ..
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' भत्वमोङ्कारस्य । ओङ्कारो ओंकारको श्रेष्ठता है । यहाँ ओंकार । ह्यत्रोपास्य इति ऋषभादि- ही उपासनीय है, इसलिये 'ऋषभ'
| आदि शब्दोंसे ओंकारकी स्तुति की शब्दैः स्तुतियाय्यैवोङ्कारस्य ।
गरस्य । जानी उचित ही है । छन्द अर्थात् छन्दोभ्यो वेदेभ्यो वेदा एमृतं वेदोंसे-वेद ही अमृत हैं, उस तसादमृतादधिसंवभूव । लोक- अमृतसे जो प्रधानरूपसे हुआ है।
तात्पर्य यह है कि लोक, देव, वेद देववेदव्याहृतिभ्यः सारिष्ठं
| और व्याहृतियोंसे सर्वोत्कृष्ट सार ग्रहण जिघृक्षोः प्रजापतेस्तपस्यत करनेकी इच्छासे तप करते हुए प्रजा
ओङ्कारः सारिष्ठत्वेन प्रत्यभा- | पतिको ओंकार ही सर्वोत्तम साररूपसे दित्यर्थः । न हि नित्यस्योङ्कार
भासित हुआ था, क्योंकि नित्य
ओंकारकी साक्षात् उत्पत्तिकी कल्पना स्याञ्जसवोत्पत्तिरेत्र कल्प्यते ।
नहीं की जा सकती। वह इस स एवंभूत ओङ्कार इन्द्रः सर्व- प्रकारका ओंकाररूप इन्द्र-सम्पूर्ण कामेशः परमेश्वरो मा मां मेधया
कामनाओंका स्वामी परमेश्वर मुझे
मेधाद्वारा प्रसन्न अथवा सबल करे प्रज्ञया स्पृणोतु प्रीणयतु बलयतु
इस प्रकार यहाँ बुद्धिबलके लिये वा । प्रज्ञावलं हि प्रार्थ्यते । प्रार्थना की जाती है |
अमृतस्य अमृतत्वहेतुभूतस्य हे देव ! मैं अमृत-अमृतत्वके ब्रह्मज्ञानस्य तदधिकारात्, हे
| हेतुभूत ब्रह्मज्ञानका धारण करने
वाला होऊँ, क्योंकि यहाँ ब्रह्मज्ञानदेव धारणो धारयिता भूयासं
का ही प्रसङ्ग है । तथा मेरा शरीर भवेयम् । किं च शरीरं मे मम | विचर्षण-विचक्षण अर्थात् योग्य विचर्षणं विचक्षणं योग्यमित्ये- | हो। [मूलमें 'भूयासम्' (होऊँ) यह
उत्तम पुरुषका प्रयोग है इसे ] तत् । भूयादिति प्रथमपुरुष- भयात होडस प्रकार प्रथम पलविपरिणामः । जिह्वा मे मधु-1 में परिणत कर लेना चाहिये । मेरी