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________________ २१२ तैत्तिरीयोपनिषद् [वल्ली ३, न्तरतममानन्दं ब्रह्मा विज्ञातवां- द्वारा ही सबकी अपेक्षा अन्तरतम स्तपसैव साधनेन भृगुः तस्माद्र आनन्दको ब्रह्म जाना । अतः जो ब्रह्मको जाननेकी इच्छावाला हो उसे लाविजिज्ञासुना वाह्यान्तःकरण साधनरूपसे बाह्य इन्द्रिय और समाधानलक्षणं परमं तपःसाधन- अन्तःकरणका समाधानरूप परम मनुछेयमिति प्रकरणाः । तप ही करना चाहिये-यह इस प्रकरणका तात्पर्य है। अधुनाख्यायिकातोऽपसृत्य । अब आख्यायिकासे निवृत्त होकर श्रुतिः स्वेन वचनेनाख्यायिका- | श्रुति अपने ही वाक्यसे आख्यायिका | से निष्पन्न होनेवाला अर्थ बतलाती निर्वयमर्थमाचष्टे-सेपा भार्गवी है-अन्नमय आत्मासे प्रारम्भ हुई भृगुणा विदिता वरुणेन प्रोक्ता यह भार्गवी-भृगुकी जानी हुई और वारुणी विद्या परमे व्योमन्हृदया- वारुणी-वरुणकी कही हुई विद्या | परमाकाशमें-हृदयाकाशस्थित गुहाकाशगुहायां परम आनन्देऽद्वैते के भीतर अद्वैत परमानन्दमें प्रतिष्टित प्रतिष्ठिता परिसमाप्तानमयादात्म- है अर्थात् वहीं इसका पर्यवसान नोऽधिप्रवृत्ता। य एवमन्योऽपि होता है । इसी प्रकार जो कोई दूसरा पुरुष भी इसी क्रमसे तपरूप तपसैव साधनेनानेनैव क्रमेणा- साधनके द्वारा क्रमशः अनुप्रवेश नुप्रविश्यानन्दं ब्रह्म वेद स एवं करके आनन्दको ब्रह्मरूपसे जानता है वह इस प्रकार विद्यामें विद्याप्रतिष्ठानात्प्रतितिष्ठत्यानन्दे स्थिति लाभ करनेसे आनन्द अर्थात् परमे ब्रह्मणि, ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः। परब्रह्ममें स्थिति प्राप्त करता है, यानी ब्रह्म ही हो जाता है। दृष्टं च फलं तस्योच्यते- अब उसका दृष्ट ( इस लोकमें प्राप्त होनेवाला) फल बतलाया __अन्नवान्प्रभूतमन्नमस्य विद्यत जाता है-अन्नवान-जिसके पास
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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