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________________ अनु० ६ ] शाङ्करभाष्यार्थ इत्यन्नवान् । सत्तामात्रेण तु बहुत-सा अन्न हो उसे अन्नवान्, कहते हैं । * अन्नकी सत्तामात्र से तो सर्वो भवानिति विद्याया | सभी अन्नवान् हैं, अंतः [ यदि उस विशेषो न स्यात् । एवमन्नमत्ती - प्रकार अर्थ किया जाय तो ] विद्याकी कोई विशेषता नहीं रहती । त्यन्नादो दीप्ताभिर्भवतीत्यर्थः । । इसी प्रकार वह अन्नाद - जो अन्न भक्षण भिर्गवाश्वादिभिर्ब्रह्मवर्चसेन शम महान्भवति । केन महत्त्वमित्यत | करे यानी दीप्ताग्नि हो जाता है । वह महान् हो जाता है । उसका महत्त्व आह----प्रजया पुत्रादिना पशु- | किस कारणसे होता है ? इसपर कहते हैं- पुत्रादि प्रजा, गौ, अच आदि पशु, तथा ब्रह्मतेज यानी शम, दम एवं ज्ञानादिके कारण होनेवाले तेजसे तथा कीर्ति यानी शुभाचरणके कारण होनेवाली ख्यातिसे वह महान् हो जाता है ॥ १ ॥ दमज्ञानादिनिमित्तेन तेजसा । महान्भवति कीर्त्या ख्यात्या शुभप्रचारनिमिचया ॥१॥ इति भृगुवल्ल्यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ ६ ॥ २१३ * मूलमें केवल 'अन्नवान्' है, भाष्यमें उसका अर्थ 'प्रभूत ( बहुत से ) अवाला' किया गया है। इससे यह शंका होती है कि 'प्रभूत' विशेषणका प्रयोग क्यों किया गया। इसीका समाधान करनेके लिये आगेका वाक्य है ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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