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________________ तैत्तिरीयोपनिपद [चल्ली २ परिकल्पित आत्सत्वेन प्राणमयः है. प्राणमय है । प्राणवायु उससे । युक्त अर्थात् तत्प्राय [ यानी उसमें प्राणो बायुस्तन्मयत्तत्मायः । तेन प्राणी ही प्रधानता है । जिस प्राणमयेदारसमय आत्मैप पूणों प्रकार वायुसे धोकनी भरी रहती है 'उनी प्रकार उस प्राणमयसे यह वायुनेव दृतिः। स वा एप प्राण- ' अन्तरसमय शरीर भरा हुआ है। मय आत्मा पुरुषविध एव पुरुषा- ' वह यह प्राणमय आत्मा पुरुषविध अर्थात् शिर और पक्षादिके कारण कार एब, शिरपक्षादिभिः । पुरुपाकार ही है। किं स्वत एक, नेत्याह। क्या वह खतः ही पुरुपाकार प्राणमयस्य प्रसिद्ध तापदभरस- है ? इसपर कहते हैं-'नहीं, पुरुपविधत्वन् मयस्यात्सल - अन्नरसमय शरीरकी पुरुषाकारता तो प्रसिद्ध ही है। उस अन्नरसमयविधत्वम्। तत्यानरसमय पुरुष- की पुरुपविधता-पुरुपाकारताके विधतां पुरुपाकारतासनु अयं अनुसार साँचे में ढली हुई प्रतिमाके प्राणमयः पुरुपविधो मूपानिरिक्त . | समान यह प्राणमय कोश भी 10 | पुरुषाकार है-खतः ही पुरुषाकार प्रतिमापन खत एय। एवं पूर्वस्य नहीं है। इसी प्रकार पूर्व-पूर्वको पूर्वस्य पुरुपविधतामनुत्तरोत्तरः पुरुपाकारता है और उसके अनुसार पीछे-पीछेका कोश भी पुरुषाकार है। पुरुषविधो भवति पूर्वः पूर्व- | तथा पूर्व-पूर्व कोश पीछे-पीछेके श्रोत्तरोत्तरेण पूर्णः। | कोशसे पूर्ण (भरा हुआ) है। __ कथं पुनः पुरुपविधतास्य इसकी पुरुपाकारता किस प्रकार इत्युच्यते । तस्य प्राणमयस्य प्राश है ! सो बतलायी जाती है. उस प्राणमयका प्राण ही शिर है । एव शिरः। प्राणमयस्य वायु- वायुके विकाररूप प्राणमय कोशका विकारस्य प्राणो मुखतासिका मुख और नासिकासे निकलनेवाला प्राण, जो मुख्य प्राणकी वृत्तिविशेष निम्सरणो वृत्तिविशेषः शिर एव है, श्रुतिके वचनानुसार शिररूपसे ही
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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