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________________ अनु०६] शाङ्करभाष्यार्थ ३५ वक्ष्यमाणार्थत्वानोपासनभेदकः। आगे बतलायी जानेवाली उपासनाके लिये होनेके कारण [पूर्वोक्त वक्ष्यमाणार्थत्वं च तद्विशेषविव- उपासनासे ] उसका भेद करने वाला नहीं है । उसी उपासनाको आगे बतलाना क्यों इष्ट है यह बात क्षुत्वादित्यादिनोक्तम् । सर्वे देवा 'उसकी विशेषता बतलानेकी इच्छा होनेके कारण' आदि हेतुओंसे असा एवं विदुपेऽङ्गभूता आव- पहले कह ही चुके हैं । ऐसा जाननेवाले उपासकको उसके अङ्गहन्त्यानयन्ति बलिं स्वाराज्य भूत समस्त देवगण बलि (उपहार) समर्पण करते हैं अर्थात् खाराज्यकी प्राप्तौ सत्यामित्यर्थः ॥१-३॥ प्राप्ति हो जानेपर उसके लिये उपहार लाते हैं-यह इसका तात्पर्य है ॥१-३॥ इति शीक्षावल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥५॥ पष्ट अबुवाक बसके साक्षात् उपलब्धिस्थान हृदयाकाशका वर्णन भूर्भुवःसुवास्वरूपा मह इत्ये-1 भूः, भुवः और सुवः-ये अन्य को - देवता 'महः' इस व्याहृतिरूप हिरण्य गर्भसंज्ञक ब्रह्मके अङ्ग हैं-ऐसा गान्यन्या देवता इत्युक्तम् । यस्य | | पहले कहा जा चुका है । जिसके ता अङ्गभूतास्तस्यैतस्य ब्रह्मणः वे अङ्गभूत हैं उस इसब्रह्मकी साक्षात् साक्षादुपलब्ध्यर्थमुपासनार्थ च | उपलब्धि और उपासनाके लिये हृदयाकाशः स्थानमुच्यते शाल हृदयाकांश स्थान बतलाया जाता है, जैसे कि विष्णुके लिये शालग्राम । ग्राम इव विष्णा तासान्ह उसमें उपासना किये जानेपर तब्रह्मोपास्यमानं मनोमयत्वादि- ही वह मनोमयत्वादिधर्मविशिष्ट
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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