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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली३
इदानी ब्रह्मण उपासनप्रकार अब ब्रह्मकी उपासनाका [ एक सोपालन- उज्यते--क्षेस इति । और ] प्रकार बतलाया जाता है
'क्षेम है' इस प्रकार वाणीमें । प्राप्त प्रकारान्तराणि वाचि । क्षेमो ना
पदार्थकी रक्षा करनेका नाम क्षेम' , 'मानुपी तमाश' मोपात्तपरिरक्षणम्। है। वाणीमें ब्रह्म क्षेमरूपसे स्थित ब्रह्म वाचि क्षेमरूपेण प्रतिष्ठित- है-इस प्रकार उसकी उपासना मित्युपास्यम् । योगक्षेम इति, !
करनी चाहिये । 'योगक्षेम'-अप्राप्त
वस्तुका प्राप्त करना 'योग' कहलाता योगोऽनुपात्तस्योपादानम् , तो है। वे योग और क्षेम यद्यपि हि योगक्षेमी प्राणापानयोः सतो- बलवान् प्राण और अपानके रहते र्भवतो यद्यपि तथापि न प्राणा
हुए ही होते हैं, तो भी उनका
कारण प्राण एवं अपान ही नहीं पाननिमित्तावेव किं तर्हि ब्रह्म- है। तो उनका कारण क्या है ? निमित्तौ । तस्साहा योगक्षेमा- वे ब्रह्मके कारण ही होते हैं । अतः स्मना प्राणापानयोः प्रतिष्ठित
योगक्षेमरूपसे ब्रह्म प्राण और अपान
में स्थित है-इस प्रकार उसकी मित्युपास्यम् ।
उपासना करनी चाहिये । एवमुत्तरेष्वन्येषु तेन तेना- इसी प्रकार आगेके अन्य पर्यायोंस्मना ब्रह्मैवोपास्यम् । कर्मणो
में भी उन-उनके रूपसे ब्रह्मकी ही
उपासना करनी चाहिये । कर्म ब्रह्मनिर्वय॑त्वाद्धस्तयोः कर्मा- | ब्रह्मकी ही प्रेरणासे निप्पन होता त्मना ब्रह्म प्रतिष्ठितमित्युपा
है; अतः हाथोंमें ब्रह्म कर्मरूपसे स्थित
है-इस प्रकार उसकी उपासना. स्यम् । गतिरिति पादयोः। करनी चाहिये । चरणोंमें गतिरूपसे विमुक्तिरिति पायो ।. इत्येता
और पायुमें विसर्जनरूपसे [प्रतिष्ठित
समझकर उसकी उपासना करे। - मानुपीमनुष्येषु भवा मांनुष्य इस प्रकार यह मानुषी-मनुष्योंमें