________________
अनु०.१]
शाङ्करमाप्यार्थ
तासु हि सुखकृत्सु विद्या- उनके सुखप्रद होनेपर ही ज्ञान
के श्रवण, धारण और उपयोग श्रवणधारणापयागा अप्रतिबन्ध- निर्विघ्नतासे हो सकेंगे-इसलिये ही न भविष्यन्तीति तत्सुखकर्तृत्वं
| 'शं नो भवतु' आदि मन्त्रद्वारा
उनकी सुखावहताके लिये प्रार्थना प्रार्थ्यते शं नो भवविति। । | की जाती है। ब्रह्म विविदिपुणा नमस्कार- अब ब्रह्मक ।
विद्याके विघ्नोंकी शान्तिके लिये वन्दनक्रिये वायुविपये ब्रह्म
वायुसम्बन्धी नमस्कार और वन्दन विद्योपसर्गशान्त्यर्थ क्रियेते। सर्व- किये जाते हैं | समस्त कर्मोका क्रियाफलानां तदधीनत्वाद्
फल वायुके ही अधीन होनेके
कारण ब्रह्म वायु है । उस ब्रह्म वायुस्तस्मै ब्रह्मणे नमः । ब्रह्मको मैं नमस्कार अर्थात् प्रह्वीभाव प्रह्वीभावं करोमीति वाक्यशेपः ।
(विनीतभाव ) करता हूँ। यहाँ
| 'करोमि' यह क्रिया वाक्यशेप है। नमस्ते तुभ्यं हे वायो नमस्क- हे वायो ! तुम्हें नमस्कार है-मैं रोमीति । परोक्षप्रत्यक्षाभ्यां
तुम्हें नमस्कार करता हूँ-इस प्रकार
यहाँ परोक्ष और प्रत्यक्षरूपसे वायु वायुरेवाभिधीयते । ही कहा गया है।
किं च त्वमेव चक्षुराद्यपेक्ष्य। इसके सिवा क्योंकि बाह्य चक्षु बाह्यं संनिकृष्टमव्यवहितं प्रत्यक्ष
आदिकी अपेक्षा तुम्हीं समीपवर्ती
अव्यवहित अर्थात् प्रत्यक्ष ब्रह्म हो ब्रह्मासि यसात्तस्मात्त्वामेव | इसलिये तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं कहूँगा। तुम्हींको ऋत अर्थात् शास्त्र
और अपने कर्तव्यानुसार बुद्धिमें यथाशास्त्रं यथाकर्तव्यं बुद्धौ
सम्यकरूपसे निश्चित किया हुआ सुपरिनिश्चितमर्थं तदपि त्वद- अर्थ कहूँगा, क्योंकि वह [ऋत]