________________
१०२
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
व्योम्नीति वा सामानाधिकरण्या- ही परमाकाश है । अथवा 'गुहायां
व्योम्नि' इस प्रकार इन दोनों पदोंदव्याकताकाशमेव गुहा । तत्रा
मर गुहा । तत्रा का सामानाधिकरण्य होनेके कारण मा हो
आकाशको ही गुहा कहा गया है,
| क्योंकि सबका कारण और सूक्ष्मतर कालेषु कारणत्वात्सूक्ष्मतरत्वा- होनेके कारण उसमें भी तीनों
| कालोंमें सारे पदार्थ छिपे हुए हैं। च । तसिन्नन्तर्निहितं ब्रह्म । उसीके भीतर ब्रह्म भी स्थित है। • हार्दमेव तु परमं व्योमेति परन्तु युक्तियुक्त तो यही है कि न्याय्यं विज्ञानाङ्गत्वेनोपासनाङ्ग- हृदयाकाश हो परमाकाश है, क्योंकि त्वेन व्योम्नो विवक्षितत्वात् । उस आकाशको विज्ञानाङ्ग यानी "यो वै स वहिर्धा पुरुपादा- उपासनाके अंगरूपसे वतलाना यहाँ काश" (छा० उ०३।१२। इष्ट है। "जो आकाश इस [ शरीर७) “यों वै सोऽन्तःपुरुष
संज्ञक ] पुरुषसे बाहर है" "जो आकाश" (छा० उ० ३॥ १२॥
आकाश इस पुरुपके भीतर है" "जो ८) "योऽयमन्तहृदय आकाश"
यह आकाश हृदयके भीतर है" इस. (छा० उ० ३ । १२ । २ प्रकार एक अन्य श्रुतिसे हृदयाकाश
का परमत्व प्रसिद्ध है । उस हृदयाइति श्रुत्यन्तरात्प्रसिद्धं हादस
काशमें जो बुद्धिरूप गुहा है उसमें व्योम्नः परमत्वम् । तसिन्हार्दै
ब्रह्म निहित है; अर्थात् उस (बुद्धिव्योग्नि या बुद्धिगुहा तस्यां वृत्ति) से वह व्यावृत्त ( पृथक् ) निहितं ब्रह्म तवृत्त्या विविक्त- रूपसे स्पष्टतया उपलब्ध होता है; तयोपलभ्यत इति । न-ह्यन्यथा | अन्यथा ब्रह्मका किसी भी विशेष विशिष्टदेशकालंसंबन्धोऽस्ति व्र- देश या कालसे सम्बन्ध नहीं है, क्षणः सर्वगतत्वान्निर्विशेषत्वाच। क्योंकि वह सर्वगत और निर्विशेष है।