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________________ तैत्तिरीयोपनिपद् वल्ली २ सति निरक्यवत्वादप्रविष्टदेशा- निरवयव और उससे अप्रविष्ट देशका अभाव होनेके कारण उसका प्रवेश भावाच प्रवेश उपपद्यते । कथं करना सम्भव नहीं है। तो फिर उसका प्रवेश कैसे होना चाहिये ? तथा तहि प्रवेशः स्यात् । युक्तश्च प्रवेशः उसका प्रवेश होना उचित ही है,. क्योंकि 'उसीमें अनुप्रविष्ट हो गया' श्रुतत्वात्तदेवानुप्राविशदिति । : ऐसी श्रुति है। सावयवमेवास्तु तर्हि । साब- पूर्व-तब तो ब्रह्म सावयत्र ही होना चाहिये। उस अवस्थामें, यवत्वान्मुखे हस्तप्रवेशवन्नाम-सावयव होनेके कारण मुखमें हाथका प्रवेश होनेके समान उसका नाम-रूप रूपकार्ये जीवात्मनानुप्रवेशोयुक्त कार्यमें जीवरूपसे प्रवेश होना ठोक एवेति चेत् ? ही होगा-यदि ऐसा कहें तो? नाशून्यदेशत्वात् । न हि सिद्धान्ती-नहीं; क्योंकि उससे शून्य कोई देश नहीं है। कार्यकार्यात्मना परिणतस्य नाम- रूपमें परिणत हुए ब्रह्मका नाम-रूप कार्यके देशसे अतिरिक्त और कोई रूपकार्यदेशव्यतिरेकेणात्मशून्यः अपनेसे शून्य देश नहीं है, जिसमें | उसका जीवरूपसे प्रवेश करना प्रदेशोस्ति यंप्रविशेञ्जीवात्मना। सम्मव हो । और यदि यह मानो कि जीवात्माने कारणमें ही प्रवेश कारणमेव चेत्प्रविशेञ्जीवात्मत्वं किया तव तो वह अपने जीवत्वको ही त्याग देगा, जिस प्रकार कि जह्याधथा घटो मृत्प्रवेशे घटत्वं घड़ा मृत्तिकामें प्रवेश करनेपर अपना घटत्व त्याग देता है। तथा जहाति । तदेवानुप्राविशदिति 'उसीमें अनुप्रविष्ट हो गया' इस श्रुतिसे भी कारणमें अनुप्रवेश करना च श्रुतेने कारणानुप्रवेशो युक्तः।। सम्भव नहीं है ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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