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________________ ४८ तैत्तिरीयोपनिपद् [ वल्ली १ ओमित्येव ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन् प्रवचन अर्थात् अध्ययन करनेवाला प्रवचनं करिष्यन्नध्येष्यमाण ओमित्येवाह । ओमित्येव प्रतिपद्यतेऽध्येतुमित्यर्थः । ब्रह्म वेद 1 मुपामवानीति प्राप्नुयां ग्रहीयामीत्युपाप्नोत्येव ब्रह्म ब्राह्मण 'ॐ' ऐसा उच्चारण करता है; अर्थात् 'ॐ' ऐसा कहकर हीं वह अध्ययन करनेके लिये प्रवृत्त होता है । 'मैं ब्रह्म यानी वेदको प्राप्त करूँ अर्थात् उसे ग्रहण करूँ' ऐसा कहकर वह ब्रह्मको प्राप्त कर ही लेता है । अथवा [ यों समझो कि ] 'मैं ब्रह्मपरमात्माको प्राप्त करूँ' इस प्रकार अथवा ब्रह्म परमात्मा तमु आत्माको प्राप्त करनेकी इच्छासे वह पामवानीत्यात्मानं प्रवक्ष्यन्प्राप-'ॐ' ऐसा ही कहता है और | यिष्यन्नोमित्येवाह । स च तेनोङ्कारेण ब्रह्म प्राप्नोत्येव । ओङ्कारपूर्व प्रवृत्तानां क्रियाणां फलवत्त्वं उस ॐकारके द्वारा वह ब्रह्मको प्राप्त कर ही लेता है । इस प्रकार क्योंकि ॐकारपूर्वक प्रवृत्त होनेवाली - क्रियाएँ फलवती होती हैं इसलिये 'ॐ कार ब्रह्म है' इस तरह उसकी उपासना करे - यह इस वाक्यका अर्थ है ॥ १ ॥ यस्मात्तस्मादोङ्कारं ब्रह्मेत्युपासी तेति वाक्यार्थः ॥ १ ॥ +०+ इति शीक्षावल्ल्या मटमोऽनुवाकः ॥ ८ ॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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