SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनु० १ ] चात्मा ब्रह्म । तद्विज्ञानादविद्या निवृत्तिरिति ब्रह्मविद्यार्थोपनिप दारभ्यते । शाङ्करभाष्यार्थं उपनिपदिति विद्योच्यतेः उपनिपच्छन्द्र- तच्छीलिनां गर्भजनिरुक्तिः न्मजरादिनिशातनात्तदवसादनाद्वा ब्रह्मणो वोप निगमयितृत्वादुपनिषण्णं वाम्यां परं श्रेय इति । तदर्थत्वाद् - ग्रन्थोऽप्युपनिषत् | होता है । तथा स्वयं आत्मा हो ब्रह्म है और उसके ज्ञानसे ही अविद्याकी निवृत्ति होती है; अतः अब ब्रह्मज्ञानके लिये उपनिपद्का आरम्भ किया जाता है । अपना सेवन करनेवाले पुरुषोंके गर्भ, जन्म और जरा आदिका निशातन ( उच्छेद) करने या उनका अवसादन ( नाश) करनेके कारण 'उपनिषद्' शब्दसे विद्या ही कही जाती है। अथवा ब्रह्मके समीप ले जानेवाली होनेसे या इसमें परम श्रेय ब्राह्म उपस्थित है इसलिये [ यह चिया 'उपनिपद्' है ] | उस विद्याके ही लिये होनेके कारण ग्रन्थ भी 'उपनिषद्' है । शfrasia शान्तिपाठ ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो वृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ १ ॥ [ प्राणवृत्ति और दिनका अभिमानी देवता ] मित्र ( सूर्यदेव ) हमारे लिये सुखकर हो । [ अपानवृत्ति और रात्रिका अभिमानी ] वरुण 1
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy